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________________ २६ ध्यान सूत्र ज्यों मूल, मुख्य द्रुम में जग में कहाता, या देह में प्रमुख मस्तक है मुहाना । त्यों ध्यान ही प्रमुख है मुनि के गुणों में, धर्मों तथा सकल आचरणों व्रतों में ॥४८४।। सध्यान है मनस की स्थिरता सुधा है, तो चित्त की चपलता त्रिवली विधा है । चिन्ताग्नुपेक्ष क्रमशः वह भावना है, तीनों मिटें बम यही मम कामना है ॥४८५।। ज्यों नीर में लवण है गल लीन होता, योगी समाधि सर में लवलीन होता। अध्यात्मिका धधकती फलरूप ज्वाला, है नागती द्रुत शुभाशुभ कर्म शाला ॥४८६।। व्यापार योगत्रय का जिसने हटाया, समोह राग रति रोषन को नगाया। ध्यानाग्नि दीप्त उसमें उठती दिखाती, है राख राख करती विधि को मिटाती ॥४८७।। बैठे करे स्वमुख उत्तर पूर्व में वा, ध्याता सुधी, स्थित सुखासन से सदेवा । मादर्श-सा विमल चारित काय वाला, पीता समाधि-रस पूरित पेय प्याला ॥४८८।। पल्यंक पासन लगाकर प्रात्म ध्याता, नासाग्र को विषय लोचन का बनाता। व्यापार योग त्रय का कर बन्द ज्ञानी, उच्छवास श्वास गति मंद करें प्रमानी ॥४८९॥ [ ६४ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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