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________________ द्वितीय अध्याय ५३' विशेषार्थ - उपगूहनादि अंगोंके समान इस अंगके भी दो भेद हैं-स्व-प्रभावना और पर - प्रभावना । अपने भीतर सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करना, सतत ज्ञान-वृद्धि और शास्त्राभ्यासमें संलग्न रहना और शक्तिको नहीं छिपाते हुए सदाचारकी ओर निरन्तर अग्रसर होना स्वप्रभावना कहलाती है । व्यक्तिको आत्मिक या धार्मिक तेजस्विताको देखकर बिना कहे ही अनायास संसार पर उसका उत्तम प्रभाव पड़ता है । तथा जगत्में व्याप्त आत्मिक अज्ञानको दूर करनेके लिए उपदेश देना, प्रवादियोंके साथ शास्त्रार्थ कर और उन्हें परास्त कर धर्मका डंका बजाना, सम्यग्ज्ञान के प्रचारार्थ विद्यालय खोलना, ज्ञानपीठ स्थापित करना, असमर्थ विद्यार्थियोंको छात्रवृत्ति देना, सविभव जिनपूजा करना, विद्या और मन्त्रादिके चमत्कार दिखाना, दानशालाएँ खोलना एवं धर्म-प्रचारार्थ स्थायी अर्थ-कोष स्थापित करना पर प्रभावना है। सम्यग्दृष्टि जीव आत्मिक गुणोंकी वृद्धि करते हुए स्व-प्रभावना तो करता ही है, साथ ही उक्त उपायोंसे अपनी शक्तिके अनुसार संभव उपायसे पर प्रभावना भी करता है और करनेके लिए प्रयत्नशील रहता है । आठों अह्नोंके धारण करनेकी आवश्यकता . नांगहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विपवेदनाम् ॥ २४ ॥ जिस प्रकार एक भी अक्षरसे न्यून मन्त्र सर्पादिके विषकी वेदनाको दूर करनेमें समर्थ नहीं है, उसी प्रकार किसी एक अंगसे. हीन सम्यग्दर्शन संसारके जन्म-मरणकी परम्पराको छेदनेके लिए. समर्थ नहीं है | ॥२४॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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