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________________ द्वितीय अध्याय - स्वीकार करनेके अभिमुख हो और सदाचारको छोड़कर असदा चारकी ओर बढ़ने लगे, तब धर्मसे वात्सल्य रखनेवाले मनुष्योंका ... कर्त्तव्य है कि जिस प्रकारसे भी सम्भव हो, उसे अपने धर्ममें स्थिर रखनेका प्रयल करें। यह पर-स्थितिकरण है। तथा यदि आप स्वयं ही काम-विकार, आजीविका-विनाश या क्रोधादि कषायोंके आवेशसे चल-विचल होने लगें, तो अपने आत्माको सम्बोधन करें-हे आत्मन् , तने आज तक असंख्य योनियोंमें नाना प्रकारके अनन्त कष्ट सहे हैं, फिर आज यह तेरा कष्ट कितना-सा है, इत्यादि प्रकारसे अपने आपको समझाते हुए स्वयं पतित होने से बचे । इसे स्व-स्थितिकरण कहते हैं। ७ वात्सल्य-अंग स्वयूथ्यान् प्रति सद्भावसनाथाऽपेतकैतवा । प्रतिपत्तियथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥२०॥ भनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे । सर्वेष्वपि च सधर्मिष्वपि परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ॥२१॥ अपने साधर्मी भाइयोंके प्रति निश्छल, सरल सद्व्यवहार करना, उनका यथायोग्य आदर-सत्कार करना और उनके साथ गोवत्सवत् स्नेह करना वात्सल्य अंग कहलाता है। अतएव भगवती अहिंसामें, शिवसुख-लक्ष्मीकी प्राप्तिके कारणभूत धर्ममें और सभी साधर्मी बन्धुओंमें परम स्नेहमय वात्सल्यभाव रखना चाहिए ॥२०-२१॥ . विशेषार्थ-जैसे गाय अपने बछड़ेके साथ सहज आन्तरिक स्नेह रखती है, उसे देखकर आनन्दसे विभोर हो जाती है और उसे दुःखी देखकर, सिंहादि हिंसक प्राणियोंके द्वारा आक्रान्त एवं
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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