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________________ द्वितीय अध्याय किसी भी प्रकार की प्रशंसा या अनुमोदना, आत्म-प्रतारणा तो करती प्रवञ्चनाका काम करती है, ही है, साथ ही दूसरोंके लिए भी क्योंकि लोक गतानुगतिक होते हैं, प्रत्येक व्यक्ति परीक्षा-प्रधानीः ; नहीं हो सकता । अतः जो विवेकी एवं सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें भूलकर भी मिथ्यामत और उसके माननेवालोंकी पूज्य भावसे आदर-भक्ति या प्रशंसा नहीं करना चाहिए । - ४६ ५ उपगूहन या उपबृंहण अंग स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥ १६॥ धर्मोऽभिवर्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया | परदोपनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥१७॥ स्वयं शुद्ध धर्म मागेकी वाल या अशक्त जनके निमित्तसे उत्पन्न हुई निन्दाके प्रमार्जन करनेकों उपगूहन अंग' कहते हैं । उपगूहन या उपबृंहण गुणकी प्राप्तिके लिए मार्दवादिकी भावना से सदा आत्म-धर्मकी वृद्धि और पर दोपका उपगूहन करना चाहिए ।।१६-१७।। 7 विशेषार्थ - धर्मका या मुक्तिका मार्ग तो स्वयं शुद्ध होता है, अतएव उसकी निन्दा स्वतः तो संभव नहीं है, तथापि धर्मके धारण करनेवाले या मोक्षमार्ग पर चलनेवाले किसी बाल (अज्ञानी) या अशक्त (असमर्थ) जनके आश्रयसे अर्थात् उसकी असावधानी या भूलसे यदि कभी धर्मकी या मुक्तिमार्गकी निन्दा उठ खड़ी हो, उसका अपवाद होने लग जाय या लोग उसे कलंकित करने लगें, तो उस निन्दाके प्रमार्जन करनेको, अपवादके दूर करने तथा , ४
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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