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________________ · प्रथम अध्याय ३६ ..... सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तं स्थानमात्मस्वभावजम् । .... प्राप्तं परमनिर्वाणं येनासौ सुगतः स्मृतः ॥४६॥ "जिसने सर्व प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित, आत्म-स्वभावसे उत्पन्न हुए परम निर्वाणरूप शिव-स्थानको प्राप्त कर लिया है, उसे सुगत'. .. कहते हैं ॥४९॥ हैं ॥४९॥ . . . . . : सुप्रभातं सदा यस्य केवलज्ञानरश्मिना। । ... लोकालोकप्रकाशेन सोऽस्तु भव्यदिवाकरः ॥५०॥ ___ लोकालोककी प्रकाश करनेवाली केवलज्ञानरूपी किरणोंके द्वारा जिसकी आत्मामें सदा सुप्रभात रहता है, वह 'भव्य-दिवाकर' ' कहलाता है |॥५०॥ .. .. ... . . . . ....... :. . जन्म-मृत्यु-जरारोगाः प्रदग्धा ध्यानवह्निना।। यस्यात्मज्योतिषां राशेः सोऽस्तु वैश्वानरः स्फुटम् ॥५॥ जिसने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा अपने जन्म, जरा और . मृत्युरूपी महारोगोंको दग्ध कर दिया है और जो आत्म-ज्योतियोंका पुञ्ज है वही वस्तुतः 'वैश्वानर' है ॥५१॥ एवमन्वर्थनामानि वेद्यान्यत्र विचक्षणः। ........ . वन्दे नमासि नित्यं तं सर्वशं सर्वलोचनम् ॥५२॥ .. इस प्रकार उस सर्वज्ञ परम ब्रह्म परमात्माके और भी अनेक .. नामोंकी सार्थकताको जानना चाहिए। मैं उस सर्व-लोचन सर्वज्ञकी . नित्य वन्दना करता हूँ और उसे नमस्कार करता हूँ ॥५२॥ . उपसंहार इस अध्यायके अन्तमें परमात्माके विभिन्न नामोंका उल्लेख - करते हुए उनका वास्तविक अर्थ बतलाकर यह दर्शाया गया है
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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