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________________ ३६ जैनधर्मामृत महत्त्वादीश्वरत्वाच यो महेश्वरतां गतः । वैधातुकविनिर्मुक्तस्तं वन्दे परमेश्वरम् ॥३५॥ जो अपने महत्त्वसे (बड़प्पनसे) और समवसरणादिरूप ऐश्वर्यसे महेश्वरपनेको प्राप्त है, तथा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप . धातुत्रयसे रहित है उसे 'परमेश्वर' कहते हैं, उसकी मैं वन्दना करता हूँ॥३५॥ तृतीयज्ञाननेत्रेण त्रैलोक्यं दर्पणायते । यस्यानवद्यचेष्टायां स त्रिलोचन उच्यते ॥३६॥ जिसकी निर्दोष चेष्टामें तीसरे ज्ञान-नेत्रके द्वारा सारा त्रैलोक्य दर्पणके समान प्रतिविम्बित होता है, उसे 'त्रिलोचन' कहते हैं ॥३६|| येन दुःखार्णवे बोरे मन्नानां प्राणिनां दया- . सौख्यमूलः कृतो धर्मः शंकरः परिकीर्तितः ॥३७॥ . . जिसने घोर दुःखार्णवमें डूबे हुए प्राणियोंके उद्धारार्थ दया . और सुख-मलक धर्मका उपदेश दिया है, उसे 'शंकर' कहते . . हैं ॥३७॥ रौद्राणि कर्मजालानि शुक्लध्यानोग्रवह्निना। दग्धानि येन रुद्रेण तं तु रुद्रं नमाम्यहम् ॥३॥ जिसने शुक्लध्यानरूप उग्र वहिके द्वारा रौद्र कर्म-जालोंको जला दिया है, उसे 'रुद्र' कहते हैं। मैं उस रुद्रको नमस्कार करता हूँ॥३८॥ विश्वं हि द्रव्य-पर्यायं विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् । व्याप्तं ज्ञानविपा येन स विष्णुर्म्यापको जगत् ॥३६॥ जिसने द्रव्य-पर्यायरूप त्रैलोक्य-गोचर विश्वको अपने ज्ञानके प्रकाश-द्वारा व्याप्त कर लिया है, उसे 'विष्णु' कहते हैं ॥३॥ .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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