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________________ जैनधर्मामृत नन्दस्वरूप हैं और अनन्त सुखोंके भोक्ता हैं, उन्हें निष्कल परमात्मा कहते हैं ॥२६-२७॥ विशेपार्थ-स-शरीर होते हुए भी जो जीवन्मुक्त हैं और कैवल्य अवस्थाको प्राप्तकर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये हैं, ऐसे अरहन्त परमेष्ठीको सकल परमात्मा कहते हैं। तथा जिन्होंने सर्व कर्म- बन्धनोंसे छूटकर अविनाशी परमधाम प्राप्त कर लिया है, ऐसे अनन्त गुणोंके स्वामी सिद्धपरमेष्ठीको निष्कल परमात्मा कहते हैं । सकल परमात्माको साकार या सगुण परमात्मा और निप्कल परमात्माको निराकार या निर्गुण परमात्माके नामसे सम्बोधित किया जाता है। त्यक्त्वैवं वहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः । भावयेत् परमात्मानं सर्वसङ्कल्पवर्जितम् ॥२८॥ इस प्रकार आत्माके तीनों भेदोंको जानकर बहिरात्मापनको छोड़ना चाहिए और अपने अन्तरात्मामें अवस्थित होकर सर्वसंकल्प- . विकल्पोंसे रहित परमात्माका ध्यान करना चाहिए ॥२८॥ यह जीव अनादि कालसे चले आये अज्ञान-जनित संस्कारोंको किस प्रकार छोड़े और किस प्रकार आत्मासे परमात्मा बने, इसका विवेचन अन्तिम अध्यायमें किया गया है। अव परमात्माके विभिन्न नामोंकी सार्थकता बतलाते हैं रागद्वेपादयो येन जिताः कर्ममहाभटाः । कालचक्रविनिर्मुक्तः स जिनः परिकीर्तितः ॥२६॥ जिसने राग-द्वेषादि कर्मरूप महान् सुभटोंको जीत लिया है और जो काल-चक्रसे अर्थात् भव-भ्रमणसे विनिर्मुक्त हो गया है, ऐसे पुरुषको 'जिन' कहते हैं ॥२९॥ प , २रामग
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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