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________________ प्रथम अध्याय समाधिमें निमग्न रहता है, उतने समय तक वह उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और शेष समय में उसे मध्यम अन्तरात्मा जानना चाहिए । गुणस्थानों का वर्णन आगे गुणस्थान - प्रकरण में किया गया है । इन तीनों ही प्रकार के अन्तरात्माओंमें यद्यपि बाहिरी त्यागअत्याग-सम्बन्धी विभिन्नता पाई जाती है, और भीतरी मनोवृत्ति में भी विशुद्धिकी हीनाधिकता रहती है, तथापि सर्व पदार्थों में समदर्शीपना सबके समान रहता है और इसीलिए तीनोंको सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्वी कहते हैं । सम्यक्त्वी या समदर्शी जीव मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ, इन चार भावनाओंकी निरन्तर भावना किया करता है । अतएव इन चारों भावनाओंका स्वरूप क्रमसे कहते हैं । मैत्री भावना सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सन्तु सर्वे निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ॥२०॥ माकार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत् कोऽपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ॥२१॥ संसारके सभी प्राणी सुखी हों, सभी प्राणी रोगरहित हों, सभी 'जीव आनन्दसे रहें और नित्य नये कल्याणों को देखें । कोई भी जीव दुःखको प्राप्त न हो, कोई भी प्राणी पापोंको न करे और यह सारा संसार दुःखों से छूटे । इस प्रकारसे विचार करने को मैत्रीभावना कहते हैं ॥२०-२१॥ - ३१ प्रमोद - भावना अपास्ताशेपदोषाणां वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्त्तितः ॥ २२॥ हिंसादि समस्त दोषोंसे रहित और वस्तु - स्वरूपके यथार्थ जान
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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