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________________ २४ ': जैनधर्मामृत . . मतद्वारैरविश्रान्तं स्वतत्त्वविमुखै शम् । ... व्यापृतो बहिरात्माऽयं वपुरात्मेति मन्यते ॥५॥ जिनका व्यापार स्वतत्त्वसे-अपनी आत्मासे-सदा सर्वथा विमुख या प्रतिकूल ही रहता है, ऐसी इन्द्रियोंके द्वारा बाहरी व्यापारोंमें उलझा हुआ यह बहिरात्मा शरीरको ही आत्मा मानता है ॥५॥ नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यञ्चि तिर्यगङ्गस्थं सुरागस्थं सुरं तथा ॥६॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्वतस्तथा। अनन्तानन्तधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥७॥ - यह वहिरात्मा मनुप्य-देहमें स्थित आत्माको मनुष्य, तिर्यञ्चशरीरमें स्थित आत्माको तिर्यञ्च, देव-शरीरमें स्थित आत्माको देव और नारक-शरीरमें स्थित आत्माको नारकी मानता है। किन्तु तत्त्वतः आत्मा उस प्रकारका नहीं है, क्योंकि वह अनन्तानन्त ज्ञान शक्तिका भण्डार है, स्वानुभवके गम्य है और सदा अपने स्वरूपमें अचल रहता है । तथापि मोहके माहात्म्यसे यह संसारकी जिस अवस्थाको प्राप्त होता है, उसे ही अपना स्वरूप समझने लगता है ॥६-७॥ स्वदेह-सदृशं दृष्ट्वा पर-देहमचेतनम् । परात्माधिष्ठितं मूढः परत्वेनाध्यवस्यति ॥८॥ यह मूढ़ बहिरात्मा प्राणी जिस प्रकार अपने अचेतन देहको अपनी आत्मा समझता है, उसी प्रकार परके अचेतन देहको पर ... आत्मासे अधिष्ठित देखकर उसे परकी आत्मा मानता है ॥८॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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