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________________ 174 जैनधर्मामृत उदय आ जावे, तो वह सम्यग्दर्शनसे गिर जाता है, इस गिरनेके प्रथम समयसे लेकर और मिथ्यात्वरूपी भूमिपर पहुँचनेके पूर्वकालं तक मध्यवर्ती जो अवस्था है वही दूसरा गुणस्थान जानना चाहिए। सासादन नाम विराधना का है, सम्यग्दर्शनकी विराधनाके साथ जो जीव वर्तमान होता है, उसे सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस दूसरे गुणस्थानमें जीव अधिकसे अधिक छह आवली काल तक रहता है, उसके पश्चात् वह नियमसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है / कालके सबसे सूक्ष्म अंशको समय कहते हैं और असंख्यात समयकी एक आवली होती है। यह एक आवली प्रमाण काल भी एक मिनटसे बहुत छोटा होता है। 3 सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्यग्मिथ्यारुचिमिश्रः सम्यग्मिथ्यात्वपाकतः / सुदुष्करः पृथग्भावो दधिमिश्रगुढोपमः // 5 // सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदयसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनोंके मिश्र रूप रुचि होती है, इसको पृथक् पृथक् करना अत्यन्त कठिन है, जिस प्रकार कि गुडसे मिश्रित दहीका पृथक्करण करना // 5|| भावार्थ-दर्शनमोहनीय कर्मका एक भेद सम्यग्मिथ्यात्वकर्म है / जब चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवके सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय आता है, तब वह चौथे गुणस्थानसे च्युत होकर तीसरे गुणस्थानमें आ जाता है और सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाने लगता है। इस गुणस्थानको तीसरा कहनेका मतलब यह है कि यह दूसरे सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे उत्तम परिणामोंवाला है और चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे हीन परिणामोंवाला है। जैसे दही और
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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