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________________ * षष्ठ अध्याय : संक्षिप्त सार . . . इस अध्यायमें जीवोंके क्रमिक विकाससे होनेवाले परिणामोंका वर्णन किया गया है / जैनाचार्योंने अध्यात्म दृष्टिसे संसारके समस्त प्राणियोंका चौदह भेदोंमें वर्गीकरण किया है, जिन्हें कि गुणस्थान कहते हैं। पहले अध्यायमें जिन वहिरात्माओंका वर्णन कर आये हैं, वे सबसे नीची भूमिकाके प्राणी हैं और जिन्हें परमात्माके रूपमें वर्णन. कर आये हैं, वे सबसे ऊँची भूमिकाके प्राणी हैं। मध्यवर्ती भूमिकाके. स्थानअन्तरात्माके उत्थान और पतनके निमित्तसे होते हैं। छोटे छोटे प्राणियोंसे लेकर समस्त असमनस्क तिर्यंच तथा मनुष्य, देव और नारकियोंका बहुभाग प्रथम गुणस्थानवर्ती ही समझना चाहिए / ये जीव तब तक इसी वर्गमें पड़े रहते हैं, जब तक कि वे अपने पुरुषार्थको जागृत कर और विवेकको उत्पन्न कर सम्यग्दृष्टि नहीं बन जाते हैं / सम्यग्दृष्टि बनने पर जब तक वे देशचारित्रको धारण नहीं करते, तब तक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं / देशचारित्र के धारण . करने पर वे पंचम गुणस्थानवर्ती और सकलचारित्रके धारण करने पर वे छठे गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं। इन तीनों गुणस्थानवाले जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे च्युत होनेपर दूसरे / . तीसरे गुणस्थानको प्राप्त होते हैं और परिणामोंकी विशुद्धि और चारित्रकी वृद्धि होनेपर सातवेंसे लेकर ऊपरके गुणस्थानोंको प्राप्त होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि पहले, चौथे, पाँचवें और तेरहवें गुणस्थानका काल ही अधिक है, शेष गुणस्थानोंका काल तो अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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