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________________ 166 पञ्चम अध्याय .... आत्मानौ दयामन्त्रः सम्यकर्मसमिञ्चयम् / यो जुहोति स होता स्यान्न बालाग्निसमेधकः // 58 // . जो आत्मरूपी अग्निमें दयारूपी मंत्रोंके द्वारा कर्मरूपी समिधा के समूहको सम्यक् प्रकारसे हवन करता है, वह होता' कहलाता है, बाहरी अग्निमें हवन करनेवाला होता' नहीं है / / 58|| भावपुप्पैर्यजेद्देवं व्रतपुष्पैर्वपुहम् / / समापुप्पैमनोवलि यः स यष्टा सतां मतः // 56 // जो भावरूप पुप्पोंके द्वारा देवकी पूजा करे, व्रतरूपी पुष्पांके .. द्वारा देहरूप गृहकी पूजा करे, और क्षमारूपी पुष्पोंके द्वारा मन रूपी वहिकी पूजा करे, वह पुरुष संज्जनोंके द्वारा 'यष्टा' माना गया है // 59|| पोडशानामुदारात्मा यः प्रभुर्भावनविजाम् / सोऽध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोधुरः // 60 // जो उदार आत्मा दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनारूपी ऋत्विजों ( यज्ञ करनेवालों ) का प्रभु है, उसे ही यहाँ शिवसुखरूप यज्ञका अग्रणी 'अध्वर्यु' जानना चाहिए // 6 // .. विवेकं वेदयेदुच्चैर्यः शरीर-शरीरिणोः / . . . स प्रीत्यै विदुपां वेदो नाखिलक्षयकारणम् // 6 // .. .. जो वेद (ज्ञान) शरीर और शरीरी (आत्मा): के भेदको भलीभाँति ज्ञान कराता है, वही वेद विद्वानोंकी, प्रीतिके लिए हो सकता है। अखिल हवन सामग्री और प्राणियोंके क्षयका कारण वेद विद्वानोंकी प्रीतिके लिए नहीं हो सकता // 61 // .. .. . : जातिर्जरा मृतिः पुंसां त्रयी संमृतिकारणम् / . एपा त्रयी यतस्याः क्षीयते सा त्रयी मता // 62 //
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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