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________________ १५८ जैनधर्मामृत विषयमें रति और अरति रूप मनोवृत्तिका निरोध करना साधुकी पञ्चेन्द्रिय-विजयता है ॥१४॥ १ चक्षुरिन्द्रियविजय चेतनेतरवस्तूनां हर्षामाकरक्रिया । वर्णसंस्थानभेदेषु चक्षुरोधोऽविकारधीः ॥१५॥ चेतन और अचेतन पदार्थाके नाना भेदवाले वर्षों में और संस्थानोंमें हर्ष और आमर्ष करनेवाली क्रिया नहीं करना, उनमें निर्विकार बुद्धि रहना चक्षुरिन्द्रिय-विजयगुण है ॥१५॥ २ श्रोत्रेन्द्रियविजय जीवाजीवोभयोद्भूते चेतोहारीतरस्वरे । रागद्वेपाविलस्वान्तदण्डनं श्रोत्रदण्डनम् ॥१६॥ जीव, अजीव और दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुए चित्तको हरण करनेवाले सुस्वरमें रागसे और व्याकुल करनेवाले दुःस्वरमें द्वेषसे व्याप्त चित्त का निग्रह करना श्रोत्रेन्द्रियविजय गुण है ॥१६॥ ३ नाणेन्द्रियविजय प्रकृतिप्रयोगगन्धे जीवाजीवोमयाश्रये । शुभेऽशुभे मनःसाम्यं नाणेन्द्रियजयं विदुः ॥१७॥ जीव, अजीव और उभयके आश्रयसे होनेवाले शुभ और अशुभ प्रकृति या प्रयोग जनित गन्वमें मनको समान रखना सो घ्राणेन्द्रिय विजय नामका गुण जानना चाहिए ॥१७॥ ४रसनेन्द्रियविजय गृहिदत्तेऽनपानादावदोपे समतायुतम् । गानयात्रानिमित्तं यद्दोजनं रसनाजयः ॥३॥ .. गृहस्थके द्वारा दिये गये सूखे सूखे निर्दोष अन्न-पानादिकमें
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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