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________________ ५५५ पञ्चम अध्याय जीवोंके समुदायको जानकर उनकी हिंसा आदिका मन, वचन और कायसे सर्वथा त्याग करना अहिंसा महावत है ॥३॥ २ सत्य महावत रागद्वेपादिजासत्यमुत्सृज्यान्याहितं वचः। सत्यं तत्वान्यथोक्तं च वचनं सत्यमुत्तमम् ॥४॥ राग-द्वेष आदिसे उत्पन्न हुए असत्यको, परके अहितकर वचन को और तत्त्वोंका अन्यथा कथन करने वाले वचनको छोड़ कर यथार्थ वचन कहना सत्य महावत है ।।४॥ ३ अचौर्य महाव्रत वह्वल्पं वा परद्रव्यं ग्रामादौ पतितादिकम् । अदत्तं यत्तदादानवर्जनं स्तेयवर्जनम् ॥५॥ . विना दिये हुए, ग्राम, नगर या पर्वत पर गिरे, रखे या भूले हुए बहुत या अल्प पर-द्रव्यको नहीं ग्रहण करना अचौर्य त्याग महाव्रत है ॥५॥ ____४ ब्रह्मचर्य महाव्रत .. . रागालोककथात्यागः सर्वस्वीस्थापनादिषु । . - माताऽनुजा तनूजेति मत्या ब्रह्मवतं मतम् ॥६॥ : . मनुष्य, तिथंच और देव गति सम्बन्धी सर्व प्रकारकी स्त्रियोंमें और काष्ठ, पुस्त, भित्ति आदि पर चित्राम आदिसे अंकित या स्थापित स्त्रीचित्रोंमें यह मेरी माता है, यह बहिन है, यह लड़की है, इस प्रकार अवस्थाके अनुसार कल्पना करके उनमें रागभावका, । उनके देखनेका और उनकी कथाओंके करनेका त्याग करना ब्रह्म चर्य महाव्रत माना गया है ॥६॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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