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________________ १५० जैनधर्मामृत वीभत्स है, इस प्रकार देखता हुआ उससे विरक्त होता है वह । ब्रह्मचारी श्रावक है ॥१३५॥ भावार्थ-इस प्रतिमाका धारी स्वस्त्रीका सेवन भी सर्वथा त्यागकर पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाता है। ____८ आरम्भत्याग-प्रतिमा सेवाकृपिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ॥१३६॥ जो श्रावक जीवहिंसाके कारणभूत सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भसे विरक्त हो विश्राम लेता है, वह आरम्भत्यागप्रतिमाका धारी है ॥१३६॥ भावार्थ--इस प्रतिमाका धारी सर्व प्रकारके व्यापारिक या खेती-बाड़ी सम्बन्धी धन्धे छोड़ देता है और जो कुछ भी पूर्व संचित धन है, उस पर ही सन्तोष कर जीवन यापन करता है। परिग्रह-त्याग-प्रतिमा बापु दशसु वस्तुपु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः ॥१३७॥ जो श्रावक क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, दासी, दास, कुष्य और भाण्ड, इन दश प्रकारके बाह्य परिग्रहमें ममताको छोड़कर और निर्ममतामें रत होकर आत्मस्थ हो सन्तोषको धारण करता है, वह वाह्य परिग्रहसे विरक्त नवी प्रतिमाका धारक श्रावक है ॥१३॥ १० अनुमतित्याग-प्रतिमा अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वां । नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः॥१३८॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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