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________________ १२१ चतुर्थ अध्याय . रात्रौ भुनानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा । हिंसाविरतैस्तस्मात्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥७३॥ .. रात्रिमें भोजन करनेवालोंके हिंसा अनिवार्य होती है, इसलिए हिंसासे विरत श्रावकोंको रात्रि-भोजनका अवश्य ही त्याग करना चाहिए ॥७३॥ रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसा । रात्रिंदिवमाहरतः कथं हि हिंसा न सम्भवति ॥७॥ __ रागादिक भावोंके उदयकी उत्कटतासे अत्यागभाव वाले पुरुष हिंसाका उल्लंघन नहीं कर सकते हैं, तो रात-दिन आहार करने वाले जीवके हिंसा कैसे संभव नहीं है, अर्थात् अवश्य है ॥७४॥ भावार्थ:-जिस जीवके तीव्र रागभाव होता है वह त्याग नहीं कर सकता, अतः जिसे भोजनसे अधिक राग होगा, वही रात-दिन खायेगा । और जहाँ राग है वहाँ हिंसा अवश्य है। आशंका यद्येवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः। भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ।।७।। यदि ऐसा है, अर्थात् सदाकाल भोजन करने में हिंसा होती है, तो दिनमें भोजनका त्याग करना चाहिए और रात्रिमें खाना चाहिए, क्योंकि, इस प्रकारसे हिंसा सदाकाल नहीं होगी ||७५|| समाधान .. नैवं वासरभुक्तः भवति हि रागाधिको रजनिभुक्तौ । भन्नकवलस्य भुक्तेः भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥७६।।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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