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________________ १२७ चतुर्थ अध्याय नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे ।। भवेन्नराणां स्त्रीणां चान्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥६५॥ अन्यकी कान्तामें आसक्त चित्त वाले मनुष्योंके और अन्य कान्त अर्थात् पुरुषमें आसक्त चित्त वाली स्त्रियोंके भव-भवमें नपुंसकपना, तिर्यञ्चपना और दुर्भाग्यपना प्राप्त होता है ॥६५॥ चिरायुषः सुसंस्थाना दृढसंहनना नराः। तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥६६॥ . ब्रह्मचर्यके धारण करनेसे मनुष्य दीर्घायुष, उत्तम संस्थानके धारक, दृढ़संहननवाले, तेजस्वी और महावीर्यशाली होते हैं ॥६६॥ ___ न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापीतेर्यत् । . सा परदार निवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥६७॥ . - जो पुरुष पापके डरसे परायी स्त्रियोंके पास न तो स्वयं जाता है और न अन्य पुरुषोंको भेजता है, उसे परदारनिवृत्ति और स्वदारसन्तोष नामक चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं ॥६॥ .. . ऐश्वयौदार्य-शौण्डीर्य-धैर्य-सौन्दर्य-वीर्यता । ... लभेताद्भुतसंचारांश्चतुर्थव्रतपूतधीः ॥६॥ .: चौथे ब्रह्मचर्यव्रतसे पवित्र बुद्धिवाला मनुष्य ऐश्वर्य, औदार्य, शौण्डीर्य, धैर्य, सौन्दर्य एवं वीर्यको प्राप्त करता है, और अद्भुत संचारको-अर्थात् उत्तम गतियोंको प्राप्त करता है ॥६८॥ परिग्रहपरमाणुव्रतका स्वरूप । . धन-धान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता । .परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥६६॥ धन-धान्य आदि बाह्य दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करके
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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