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________________ जैनधर्मामृत एक अहिंसात्रतके माहात्म्यसे ही मनुष्य आयुष्मान् सौभाग्यवान्, श्रीमान्, सुरूपवान् और कीर्त्तिमान् होता है, ऐसा जानकर कमसे कम सांकल्पिक त्रसहिंसाका तो त्याग करना ही चाहिए ॥ ५३ ॥ सत्याणुत्रतका स्वरूप मन्मनत्वं काहलत्वं मूक्त्वं मुखरोगिताम् । वीच्यासत्यफलं स्थूलमसत्यं च त्रिधा त्यजेत् ॥५४॥ मिनमिनाना, काहलपना, मूकपना और मुखका रोगीपना आदि असत्य भाषणके फलको देखकर मन, वचन -कायसे स्थूल असत्यको छोड़ना चाहिए ॥ ५४ ॥ असत्यतो लघीयस्वमसत्याद्वचनीयता | अधोगतिरसत्याच्च तदसत्यं परित्यजेत् ॥५५॥ असत्य भाषणसे मनुष्यको लघुता प्राप्त होती है, असत्य - भाषणसे सर्वत्र अपमान होता है, असत्य भाषण से ही नरकगति प्राप्त होती है, इसलिए असत्य वचनके वोलनेका त्याग करना चाहिए ॥ ५५ ॥ १२४ असत्यवचनाद्वैरविषादाप्रत्ययादयः । प्रादुःपन्ति न के दोषाः कुपथ्याद् व्याधयो यथा ॥५६ ।। असत्य वचन बोलनेसे वैर, विषाद, अविश्वास, आदि ऐसे कौनसे दोष हैं, जो उत्पन्न न होते हों । जिस प्रकार कि अपथ्यसेवनसे नाना व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं ॥ ५६ ॥ निगोदेष्वथ तिर्यक्षु तथा नरकवासिपु । उत्पद्यन्ते मृपावादप्रसादेन शरीरिणः ॥ ५७ ॥ झूठ बोलनेके ही प्रसादसे प्राणी निगोद में तिर्यञ्चोंमें तथा
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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