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________________ १२२ जैनधर्मामृत आठ पदार्थोंको खानेका परित्याग करते हैं वे निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म की देशनाके पात्र होते हैं ॥४७॥ भावार्थ – मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों के भक्षणका त्याग करने पर ही कोई पुरुष जैनधर्म धारण करनेके योग्य होता है, इसीलिए इनके त्यागको अष्टमूल गुण माना गया है । + धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥४८॥ जो जीव अहिंसारूपी धर्मको श्रवण करके भी स्थावर जीवों की हिंसा छोड़ने में असमर्थ हैं, वे भी त्रस जीवोंकी हिंसाका अवश्य त्याग करें ||४८ || कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा । औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषा ॥ १६ ॥ औत्सर्गिकी निवृत्ति तो कृत, कारित, अनुमोदना और मन, कायकी अपेक्षा नव प्रकार की कही गई है किन्तु आपवादिकी निवृत्ति तो अनेक रूप होती है ॥ ४६ ॥ चचन, भावार्थ - क्रमबद्ध स्वाभाविक त्यागको औत्सर्गिकी निवृत्ति कहते हैं । यह नौ प्रकारकी होती है— किसीकी भी हिंसाको मनसे, वचनसे और कायसे न आप करे, न दूसरोंसे करावे और न करनेवालेकी अनुमोदना करे । इस नव कोटिसे जो त्याग किया जाता है, उसे उत्सर्ग-निवृत्ति कहते हैं । और इनमें से अनुमोदना-सम्बन्धी तीन भेदोंको छोड़कर शेष छह भेदरूपसे अथवा कारित सम्बन्धी तीन भेदोंको छोड़कर शेष तीन
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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