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________________ १२० जैनधर्मामृत भावार्थ-मांसका खानेवाला तो पापका भागी है ही, किन्तु जो मांसको उठाता-रखता है या उसका स्पर्श भी करता है, वह भी . जीवहिंसाके पापका भागी होता है, इसका कारण यह है कि मांस में जो तज्जातीय सूक्ष्म जीव होते हैं, वे इतने कोमल होते हैं कि मनुष्यके स्पर्श करने मात्रसे उनका मरण हो जाता है। मधु-सेवनके दोष मधुशकलमपि प्रायो मधुकरहिंसात्मको भवति लोके । भजति मंधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥४२॥ इस लोकमें मधुका कण भी प्रायः मधु-मक्खियोंकी हिंसा रूप होता है अतएब जो मूढवुद्धि पुरुष मधुका सेवन करता है वह अत्यन्त हिंसक है ॥४२॥ स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । ___ तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥१३॥ जो मधुके छत्तेसे छल-द्वारा अथवा स्वयमेव ही गिरे हुए मधुको ग्रहण करता है उसमें भी तदाश्रित प्राणियोंके घातसे हिंसा होती है ॥४३॥ मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः । वल्म्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ॥४॥ मधु, मद्य, मक्खन और मांस, ये चार महाविकृतियाँ कहलाती हैं, इनका भक्षण व्रती पुरुषको नहीं करना चाहिए, क्योंकि इन चारों ही पदार्थोंमें उसी वर्णवाले सूक्ष्म जन्तु उत्पन्न होते रहते हैं ॥४४॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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