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________________ ११४ जैनधर्मामृत . किसी पुरुपको तो हिंसा उदयकालमें एक ही हिंसाके फलको देती है, और किसी पुरुपको वही हिंसा अहिंसाके विपुल फलको देती है ॥२०॥ भावार्थ-हिंसा अहिंसाके विशाल फलको कैसे देती है, इसका समाधान यह है कि जब कोई आततायी या हिंसक पशु नगरमें घुसकर अनेकों व्यक्तियोंकी हिंसा करता है, उस समय लोगोंकी रक्षाके भावसे कोई व्यक्ति उसका सामना करता है और इस पररक्षाके समय उसके द्वारा यदि आक्रमण करनेवाला मारा जाता है, तो यद्यपि वहाँ एक आततायोकी हिंसा हुई है, तथापि सैकड़ों निरपराध व्यक्तियोंके प्राणोंकी भी रक्षा उसके मारे जानेसे ही हुई है और इस प्रकार एकके मारनेकी अपेक्षा अनेकोंकी रक्षाका पुण्य विशाल है इसीलिए कहा गया है कि कहीं पर की गई हिंसा अहिंसाके विपुल फलको देती है।. . .. ' . ' हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । - इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ॥२१॥ किसी पुरुषकी अहिंसा उदयकालमें हिंसाके फलको देती है, तथा अन्य पुरुषकी हिंसा फलकालमें अहिंसाके फलको देती है, अन्य फलंको नहीं ॥२१॥ भावार्थ-कोई जीव किसी जीवकी बुराई करनेका यल कर रहा हो, परन्तु उस जीवके पुण्यसे कदाचित् बुराईके स्थान पर भलाई हो जावे, तो भी बुराईका यत्न करनेवाला उसके फलका भागी होवेगा। इसी प्रकार कोई डॉक्टर नीरोग करनेके लिए
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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