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________________ . १०२ जैनधर्मामृत क्षीणतन्द्रा जितक्लेशाः वीतसङ्गाः स्थिराशयाः । तस्यार्थेऽमी तपस्यन्ति योगिनः कृतनिश्चयाः ॥१७॥ प्रमादको क्षीण करनेवाले, क्लेशोंको जीतनेवाले, परिग्रहसे रहित और स्थित चित्त वाले ये योगिजन उस ज्ञानकी प्राप्ति के लिए ही दृढ निश्चय होकर तपस्या करते हैं ॥१७|| वेष्टयत्याऽऽत्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनैः । विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्धः समयान्तरे ॥१८॥ अज्ञानी पुरुष अपने आप ही अपनी आत्माको कर्मरूपी बन्धनोंसे वेष्टित कर लेता है और जो विशिष्ट ज्ञानी जीव है, वह समय पाकर प्रबुद्ध हो अपनेको कर्म-बन्धनोंसे छुड़ा लेता है ॥१८॥ यजन्मकोटिभिः पापं जयत्यज्ञस्तपोबलात् । तद्विज्ञानी क्षणार्द्धन दहत्यतुलविक्रमः ॥१६॥ अज्ञानी जीव जितने पापको करोड़ों जन्मोंमें तप करके उसके बलसे नष्ट करता है, सम्यग्ज्ञानी पुरुष उसी पापको अपने अतुल पराक्रमसे आधे क्षणमें ही भस्म कर देता है ॥१६॥ अज्ञानपूर्विका चेष्ठा यतेर्यस्यान भूतले । स बध्नारयात्मनात्मानं कुर्वन्नपि तपश्चिरम् ॥२०॥ इस संसार में जिस साधुकी क्रियाएँ अज्ञानपूर्वक होती हैं, वह - चिरकाल तक तपस्या करता हुआ अपनी आत्माको अपने ही कृत्योंसे बाँध लेता है ॥२०॥ भावार्थ-अज्ञानपूर्वक तप संसार-बन्धनका ही कारण है। ज्ञानपूर्वमनुष्ठानं निःशेपं यस्य योगिनः । न तस्य बन्धमायाति कर्म कस्मिन्नपि क्षणे ॥२१॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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