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________________ १०० जैनधर्मामृत है, ऐसा यह केवलज्ञान योगीश्वरोंकी ज्योतिरूप कहा गया है ॥१०॥ __भावार्थ केवलज्ञानमें समस्त लोक-अलोक प्रतिविम्बित होते हैं और यह महायोगियोंके ही होता है। अगम्यं यन्मृगाङ्कस्य दुर्भेद्यं यदवेरपि । तदुर्बोधोदतं ध्वान्तं ज्ञानभेद्यं प्रकीर्तितम् ॥११॥ जो मिथ्याज्ञानरूप उत्कट अन्धकार चन्द्रके अगम्य है और सूर्यसे भी दुर्भद्य है,वह सम्यग्ज्ञानसे ही नष्ट किया जाता है॥११॥ प्रमाण और नयका स्वरूप वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणव्यञ्जितात्मनः । एकदेशस्य नेता यः स नयोऽनेकधा मतः ॥१२॥ अनन्त धर्मात्मक वस्तुका पूर्णस्वरूप प्रमाणसे अर्थात् सम्यगज्ञानसे जाना जाता है और उसके एक एक धर्मका ज्ञान करानेवाले ज्ञानांशको नय कहते हैं। वह नय द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक के भेदसे अनेक प्रकारका है ।।१२।। ____ भावार्थ-प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म होते हैं, उन सर्व धर्मों से संयुक्त अखण्ड, वस्तुके ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। और उस वस्तुके एक धर्मके जाननेवाले ज्ञानको नय कहते हैं । उस नयके मूलमें दो भेद हैं-द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय । जो वस्तुकं वस्तुत्व या अन्वयरूप द्रव्यको विषय करे, उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और वस्तुकी पर्याय अर्थात् बदलने वाली अवस्थाओंको विषय करे, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। ..
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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