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________________ द्वितीय अध्याय 89 इस प्रकार सांसारिक उत्तमोत्तम पदों को और लोकोत्तर तीर्थंकर पदको प्राप्त होकर सम्यग्दृष्टि जीव अन्तमें अजर, अमर, अक्षय, अव्यावाध, शोक, भय, और शंकासे अतीत, अनन्त - ज्ञान-सुखसे सम्पन्न निर्मल शिव पदको प्राप्त होते हैं ॥ ११४ ॥ उपसंहार देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्वशिरोऽर्चनीयम् । लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः ॥ ११५ ॥ जिनेन्द्र देवका भक्त भव्य सम्यग्दृष्टि जीव देवेन्द्रों के समूहकी अपरिमित महामहिमाको, मुकुट-बद्ध राजाओंके मस्तकोंसे अर्चनीय चक्रवर्तीके चकरत्नको और सर्व लोकको अधरीकृत करनेवाले या अपना आराधक बनानेवाले धर्मेन्द्र चक्रको अर्थात् तीर्थङ्कर पदको पारकरके अन्तमें शिवपदको प्राप्त करता है ॥ ११५ ॥ भावार्थ- सम्यग्दर्शनके रत्नत्रयरूप धर्मका मूल है । इसकी महिमा अनिवर्चनीय है । इसको प्राप्त कर लेनेके पश्चात् जीव उत्तरोत्तर आत्म-विकास करता हुआ सभी सांसारिक अभ्युदयसुखोंको पाकर अन्तमें परम निःश्रेयसरूप मोक्ष- सुखको प्राप्त करता है । V इस प्रकार सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ ॥२॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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