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________________ ५७२ जैन धर्म में तप को यदि मिथ्याभिनिवेश हो तो वह पर सिद्धान्त के दोपों को न समझकर गुरु को पर-सिद्धान्त का निन्दक भी समझ सकता है। . ३ संवेगनीधर्मकथा-जिसके द्वारा विपाक की विरसता बताकर श्रोताजन में वैराग्य उत्पन्न किया जाये, वह संवेगनी धर्म कथा है । इसको संवेजनी तथा संवेदनी भी कहते हैं । इसके चार भेद हैं ? . (१) इहलोकसंवेगनी, (२) परलोकसंवेगनी (३) स्वशरीरसंवेगनी, ... (४) परशरीरसंवेगनी। (क) मनुष्य शरीर एवं भोगों की असारता तथा अस्थिरता बताकर वैराग्य पैदा करना इहलोकसंवेगनीकथा है। (ख) देव भी पारस्परिक ईर्ष्या, भय और वियोग तथा तृष्णा आदि के दुःखों से दुखी हैं। उन्हें भी मरकर मनुष्य तिर्यञ्च रूप दुर्गति में जाने की एवं गर्भ तथा जन्म सम्बन्धी घोर कष्ट उठाने की चिन्ता लगी रहती है-इस प्रकार परलोक का स्वरूप बताकर वैराग्य उत्पन्न करना परलोक संवेगनीकया है। (ग) यह शरीर स्वयं अशुचिरूप है, अशुचि (रजवीर्य) से उत्पन्न हुआ है और अशुचि का कारण है- इस प्रकार मानव शरीर के स्वरूप को बताकर वैराग्य उत्पन्न करना स्वशरीरसंवेगनीकथा है। (घ) किसी मृत शरीर (मुर्दा) के स्वरूप को समझ कर वैराग्य उत्पन्न करना परशरीरसंवेगनीकथा है। ४. निवेदनीधर्मफया-इहलोक-परलोक में प्राप्त होने वाले पुण्य-पाप के शुभाशुभ फलों को समझाकर संसार में उदासीनता पैदा करना निदनी धर्मकया है । इसके चार भेद हैं ? (क) इस भव में किये गये चोरी-जारी आदि दुष्कर्म एवं दानादि सत्कर्म यही फल जाते हैं। जैसे-चोरी-जारी से बदनामी तथा अशान्ति मिलती है और तीर्थकरादि महामुनियों को दान देने से मन की प्रसनता एवं स्वर्णादि द्रव्य प्राप्त होते हैं। तपस्या से अनेक प्रकार की लधिया मिलती हैं। इस प्रकार का वर्णन करने वाली कथा प्रथमनिवेदनीकथा है।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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