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________________ जैन धर्म में तप . (१०) परितापनाकारी-प्राणियों को संतापित किया जाए इत्यादि मन की प्रवृत्ति । (११) उपद्रवफारी-अमुक पुरुष को ऐसी वेदना हो कि उसके प्राण छूट जायें या अमुक पुरुष के धन को चोर चुरा ले जाएँ, इस प्रकार मन __ में चिन्तन करना। (१२) भूतोपघातफारी-जीवों का विनाश करने वाली मन की प्रवृत्ति। : १०. वैयावृत्य तप के प्रकरण में पांचवा भेद है ग्लान (रोगी) की सेवा करना। ग्लान वैयावृत्य के सम्बन्ध में प्रवचन सारोद्धार द्वार ७१ गाथा २६ में काफी विस्तार से वर्णन मिलता है। ग्लान प्रतिचारी (रोगी की सेवा करने वाले) के बारह भेद बताये हैं, जो इस प्रकार हैं(१) उद्वर्तनप्रतिचारी-ये ग्लान मुनि को पासा बदलाना, उठाना, बैठाना, बाहर ले जाना, भीतर लाना, उनकी पडिलेहणा करना इत्यादि रूप सेवा करते हैं। (२) द्वारप्रतिचारी-ये ग्लान मुनि के पास अधिक भीड़ न हो जाये, इसलिए कमरे के द्वार पर बैठे रहते हैं । (३) संस्तारप्रतिचारी- ये ग्लान मुनि के लिये साताकारी शय्यासंथारे की । व्यवस्था करते हैं। (४) कथकप्रतिचारी-ये ग्लानमुनि को धर्मोपदेश सुनाते हैं एवं धर्य बंधवाते (५) बादिप्रतिचारी ये विशेष चर्चावादी होते हैं एवं प्रसंग आने पर ग्लान मुनि के पास उत्पन्न विवाद को शान्त करते हैं । (६) अग्रद्वारप्रतिचारी- ये उपाश्रय के मुख्य द्वार पर बैठते हैं ताकि कोई प्रत्यनीक ग्लानमुनि के पास आकर क्लेश आदि न कर सके । (3) मतपतिनारी-ये ग्लानमुनि के लिए आहार-पानी की बावस्था (८) पानप्रतिचारी-करते हैं। (B) पुरीपतिवारी- (ये ग्लान मुनि के मल-मूत्र परठने का काम करत (१०) प्रसवणप्रतिचारी-हैं।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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