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________________ ; परिशिष्ट ४ ५६५ पर पन्द्रह दिन का, इस प्रकार छः मास तक लगातार प्रायश्चित्त देना । छः मास से अधिक तप का प्रायश्चित्त नहीं होता । (४) द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से अपराध को छिपाना या दूसरा रूप देना परिकुञ्चना है । इसका जो प्रायश्चित्त है, वह परिकुञ्चनाप्रायश्चित्त कहलाता है । ६. 'आलोचना के लाभ' शीर्षक पृष्ठ ३६६-४०० के सन्दर्भ में स्थानांग सूत्र का यह वर्णन भी काफी महत्त्व रखता है, जो विशेष मननीय है । स्थानांग ८१५६७ में कहा है कि जो व्यक्ति अपने दोषों की आलोचना कर लेता है, वह मरकर विशालसमृद्धि, लम्बी आयु तथा उच्चजाति का देवता बनता है (किल्विषिक, आभियोगिक, कान्दर्पिक आदि नहीं बनता ) वह वहां दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण, दिव्य तेज आदि से दशों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ विविध नाटक, गीत, वादित्रों के साथ दिव्य भोगों का अनुभव करता है । वह देवताओं में विशेष सम्मानीय होता है तथा जव देवसभा में भाषण देने लगता है तब चार-पांच देवता खड़े होकर कहते हैं - हे देवानुप्रिय ! और कहिये और कहिये ! आपका भाषण बहुत प्रिय लगता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने दोपों की आलोचना किये विना मरता है. वह नरकादि दुर्गतियों में जाता है । पहले कुछ त्याग तपस्या की हुई होने के कारण कदाचित् व्यन्तर:- किल्विपिक आदि देव बन जाता है तो उसकी आयु, ऋद्धि, तेज आदि अल्प होते हैं, उसे उच्चवासन एवं सम्मान नहीं मिलता । जब वह बोलने के लिए बड़ा होता है तो चार या पांच देवता उसे रोकते हुए कहते हैं-वस, रहने दीजिए ! अधिक मत बोलिये ! स्वर्ग से च्यवकर यदि वह मनुष्य लोक में आता है तो अन्त प्रान्त तुच्छ दरिद्र या भिक्षुकादि कुलों में उत्पन्न होता है एवं अमनोज्ञ वर्ण- गंन्धरसस्पर्श वाला तथा हीन दीन स्वर वाला होता है । ७ इसी प्रकरण में छेदाहं प्रायश्चित्त के अन्तर्गत पृष्ठ ४१७ के सन्दर्भ में यह विशेष वर्णन और भी ज्ञातव्य हैं
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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