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________________ ___ जैन धर्म में ना साध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कभी हुआ है, ग वर्तमान में नहीं है, और न भविष्य में कभी होगा। ६८ जो वि पगासो बहुमो गुणिओ पच्चक्खओ न उवलद्धो। जच्चस्म व चंदो फुडो वि संतो तहा स खलु ॥. - यहलल्प भाष्य १२२४ मास्म का बार बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उससे अयं को साक्षात् अनुभूति न हुई हो तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है जगा कि जन्मांध के समक्ष चन्द्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्षा ही रहता है। ६६ गाणं पि काले अहिजमाणं णिजरा हेऊ भवति । अकाले पुण उवधायकर कम्म बंधाय भवति ।। --निशीथ चुणि ११ शास्त्र का पान उचित समय पर किया हुआ ही निरा का हेतु होता है, अपया यह हानिकर तथा कर्म बंध का कारण बन जाता है। ध्यान: चित्तस्रोगग्गया हवइ झाणं । -~-आवस्यकनिक्ति १४५६ । किसी एक विषय पर वित्त को एकाग्र स्थिर करना ध्यान कहलाता है। एकाचिन्ता योगनिरोधो वा ध्यानम् -~नसिमान्तदीपिका ५२ माता मन, बनन-ताया की प्रवृत्ति का योगों को होना मागभिलाणी माह परियागं कुगर तव्य दोनाणं । गन्ना भान यदि सन्मदिनासग परिकमणं ।। ARE REATRE1 मान
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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