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________________ परिशिष्ट २ ५४३ . जो अपने आचार्य-उपाध्याय आदि की विनयपूर्वक शुश्रूपा सेवा तथा आज्ञाओं का पालन करता है, उनकी शिक्षाएं (विद्याएं) वैसे ही बढ़ती हैं जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष । ५१ विवत्ती अविणीयस्स, सम्पत्ती विणीयस्स य । -दशवकालिक ६।२२२ अविनीत विपत्ति (दुःख) का भागी होता है और विनीत सम्पत्ति (सुख) का। ५२ जो छंदं आराहयई स पुज्जो। -दशवकालिक ६३१ जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है वही शिष्य पूज्य होता है। आणा निद्दे सकरे, गुरुणमुववाय कारए । इंगियागारसम्पन्न से विणीए त्ति वुच्चई ।। -उत्तराध्यपन १२ जो गुरुजनों को आनाओं का पालन करता है, उनके निकट सम्पर्क में रहता है, एवं उनके हर संकेत व चेप्टा के प्रति सजग रहता है उसे विनीत कहा जाता है। विणओ दि तपो, तयो पि धम्मो विणायकको -~प्रत्नव्याकरण गुन २१३ विनय स्वयं एक तप है, और यह श्रेष्ठ धर्म है। नज्या नमइ मेहायो। बुद्धिमान् शान प्राप्त करना जाता है। ५६ विणओर येशन्स सह परलोगे वि विनाओं पर परच्छनि । धिनक विदामोर पोर हो
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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