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________________ ५०० . जैन धर्म में तपः भगवान महावीर ने दीक्षा लेते समय शरीर पर चन्दन आदि सुगंधित वस्तुओं का लेप किया था। दीक्षा के बाद जब जंगल में ध्यान करने सड़े . हुए तो उस सुगंध के कारण भौंरे आदि कीट पतंग-आ-आकर उनके शरीर पर बैठने लगे और उनकी चमड़ी को छेद कर मांस तक भी नोंचने लग .. गये । किन्तु प्रभु तो उस स्थिति में अपने ध्यान में ऐसे खड़े रहे जैसे कुछ अनुभव ही नहीं हो रहा हो । उनके जीवन में ध्यानावस्था में अनेक उपसर्ग हुए, पर कभी भी उनका ध्यान भंग नहीं हो सका, वे कभी जी चंचल नहीं ... वन-यही शुक्लध्यान की स्थिति है। गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर . - अंगारे भर देने पर भी वे उस मरणांतक पीड़ा से अकम्पित और अचंचल बने रहकर शुक्ल ध्यान में लीन बने रहे। चित्त की इस प्रकार की निर्मलता एवं स्थिरता जिस अवस्था में प्राप्त हो जाती है वही अवस्था जैन परिभाषा में शुक्ल ध्यान है, वैदिक परिभाषा में समाधि' है। . शुक्ल ध्यान के दो भेद किए गये हैं---शुक्ल और परम शुक्ल ! चतुदर्श पूर्वधर तक का शुक्ल ध्यान है, केवली भगवान का ध्यान परम शुक्लध्यान . है। यह भेद ध्यान की विशुद्धता एवं अधिकतम स्थिरता की दृष्टि से किये . गए है। स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेद बताये गये हैं.- .. १ पुषत्व वितर्फ सविचार-पृथक्त्व-का अर्थ है भेद ! बितक का अर्थ है-तर्फ प्रधान चितन । इस ध्यान में भूत ज्ञान का सहारा लेकर वस्तु के विविध भेदों पर मूक्ष्मातितुक्ष्म चिंतन किया जाता है। जैसे कभी ... जड़ वस्तु को अपने ध्येय का विषय बनकर उसी के स्वरूप पर चिंतन करो .. चले गए। द्रव्य-गुण-पर्याय आदि पर विचार करते हुए द्रव्य से पर्यावर, पुनः गांग से द्रव्य पर... इस प्रकार ध्येय का विषय भेदप्रधान बनाकर मुथन चितग करते जाना। २ बानाग १० नमवाराम नगवती २५
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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