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________________ ध्यान तप . ४६५ आदि वाक्यों का भी चिंतन किया जा सकता है तथा 'आ' पर सीधा आकर आ- आत्मा, आत्मस्वरूप, आत्मदर्शन आदि की कल्पना के रंग में मन को गहरा रंग देना चाहिए । इस प्रकार की कल्पना में मन को आनन्द भी आने लगेगा। आनन्द आने पर मन स्वतः ही स्थिर हो जायेगा। नाभिकमल से आगे बढ़कर फिर हृदयकमल पर आना चाहिए। उसकी पंखुड़ियों पर 'क' से प्रारंभ कर 'म' तक अक्षर लिखे गये हैं। पूर्वानुसार इन्हीं प्रत्येक अक्षर से अपना चिंतन प्रारम्भ करना चाहिए। जैसे क - कर्म, कर्ता, ख- खंति, खामी (गलती) आदि। अक्षरों पर बंधना नहीं चाहिए कि अमुवः अक्षर के अनुसार ही लघु शब्द ही प्रारम्भ में आये, यह कोई आग्रह नहीं है, जो भी शब्द पहले कल्पना में स्फुरित हो जाये उसी पर प्रारम्भ किया जा सकता है। हृदय कमल के पश्चात् मुख कमल पर ध्यान को केन्द्रित करना चाहिए। इस अक्षर ध्यान में यदि शांत वातावरण रहे तो मन प्रायः एक मुहुर्त या १ घंटा तक बड़ी आसानी से स्थिर किया जा सकता है। वीजाक्षर : शब्द और संकेत वैदिक ग्रन्थों में जिसे 'शब्द-ब्रह' कहा गया है, जैन दर्शन में वह पदस्थ ध्यान ही है । शब्द में अपार शक्ति है, चित्त के साथ एकाकार होने से शब्द की वह शक्ति प्रकट होकर अपना चमत्कार दिखाने लगती है। कुछ लोगों की शंका है कि जिन शब्दों का, संकेतों का या बीजाक्षरों का-जैसे में, ह्री, अहं आदि का हम अर्थ नहीं समझते, उनके ध्यान से क्या लाभ हो सकता है ? इसका उत्तर है--फि शब्द में एक विराट शक्ति छिपी रहती है, वह अपने संफेत में संपूर्ण अर्थ को, भाव को समेटे हुए होता है, हम अगर उसका अर्थ नहीं जानते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शब्द शक्तिहीन है। यह ।। हमारा अज्ञान है कि हम उस शब्द शक्ति से अनभिज्ञ हैं। जैसे तार में संफेतलिपि का प्रयोग होता है, उनमें लकीरों ओर बिन्दुओं के अतिरिक्त ओर यया दीखने में आता है ? किन्तु जानने वाले उसने पुरी भाषा और संदेश निकाल लेते है। शोरलिपि (शार्ट हैन्ड) में भी तो संकेतों का ही प्रयोग होता है ! जो उनकेतों को समझने में उनके लिए यह सब कुछ है !
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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