SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म मे तप १२ अन्तर में झाको तो वहा की दिव्यसृष्टि तुम्हें दिखाई देगी और तव तुम अपने स्वरूप का नही अनुभव कर सकोगे । इस प्रकार एक बात निश्चित हुई कि हमारा लक्ष्य है—अन्तरदर्शन ! आत्मदर्शन या स्वरूपप्राप्ति | जिसे सीधी भाषा मे मोक्ष प्राप्ति भी कह सकते है । मोक्ष की परिभाषा एवं स्वरूप वास्तव मे मोक्ष कोई भिन्न वस्तु नही है, आत्मा का आत्मस्वरूप मे प्रकट होना ही गोक्ष है । मोक्ष की परिभाया करते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं --- कृत्स्नकर्म क्षयोमोक्ष आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ही मोक्ष है । इसी बात को एक अन्य आचार्य ने कुछ स्पष्टता के माथ बता दिया है कृत्स्नकर्मक्षयादात्मन स्वरूपावस्थानं मोक्ष २ नमस्त कर्मा का क्षय करके आत्मा अपने स्वरूप मे जब स्थिर हो जाता है, तब वही मोक्ष नाम मे कहा जाता है । मूलत मोक्ष का यही स्वरूप है । जैन दर्शन ही नहीं, भारत के अन्य दर्शनो ने भी मोक्ष के सम्वन्ध मे यही नितन प्रस्तुत किया है । नाख्य दर्शन के आचार्य ने कहा हैप्रकृति वियोगो मोक्ष -आत्मा रूप पुम्यतत्व से प्रकृति रूप भौतिक तत्त्व का अलग हो जाना मोक्ष है । वैदान्त्रिक पानार्य के मतानुसार आत्मा का आत्मा में विलीन हो जाना हो मोक्ष है आत्मन्येव तयो मुक्ति वेदान्तिक मते मताः * १ उमापति नमयवि० ० १ ३ तक ) तत्वायंन्त्र १०१३ २ जैननिदान दपि ५३६ ३ दर्शन मुन्नय ४३ ४ पिकविलास
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy