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________________ चयापत्य तप ४४७ इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि प्रभु को भक्ति से भी यही है सेवा ! ज्ञान ध्यान पूजा तथा सामायिक भव दान । 'मिश्रो' इनसे भी बड़ा है सेवा का स्थान । सेवा का इतना महत्व है इसीलिए तो यह कहा गया है कि कोई नापु, साध्वी बीमार हो गये हों, तब जो दूसरे स्वस्थ साधु-साध्वी निकट हों, उन्हें उनकी सेवा में साल लग जाना चाहिए और हर प्रकार ही सावधानी के साथ उनकी सेवा तथा सार-भाल करनी चाहिए। यदि किसी को पता लग जाये कि अमुक साधु बीमार है, और फिर भी यह उनकी पा नहीं करें, भागवू कार सेवा के प्रति लापरवाही बरते--तो नात्य में रहा है, . सेवा के प्रति लापरवाही बरतने वाले साधु को बहुत कड़ा देना चाहिए, उसे चार मासा गुरु प्रामलित देना चाहिए, और मांगों के बीच में उसकी सीलना करनी चाहिए कि आने कम साधु की नमावि उपेक्षा बरती। जो सेवा की उपेक्षा करता है यह वास्तव में मं को पंक्षा करना है, समाकी उपेक्षा करता है। मग महामारी माय भावकों के लिए प्रासदार सिार दी मानामा भी विमान में मारामार सेवा fuyari निहाय परिक्षा निहाय यादपाय - . -~-~ो मनाना है, हाय का साई माया नही की। HER inary रमाए भामदेव भट। मंशा का रस
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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