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________________ जैन धर्म में त है और उनके पीछे कुछ महान उद्देश्य है । अन्य धमों में भी और प्राणिनाथ की सेवा का उपदेश है-उसके कुछ दार्शनिक कारण भी है मनुष्य की और व्यावहारिक कारण भी ! अद्वैतवादी कहते हैं- प्राणिमान में एक ही आत्मा अनेक रूपों में विराजमान है, इसलिए किसी भी प्राणी की सेवा करना वास्तव में उस एक ही आत्मा की सेवा है, ईश्वर को हो सेवा है । ईश्वर को घट-घट व्यापी मानने वाले भी - शुनि चैव श्वपाके च सभी में एक ही ईवर का प्रतिबिम्ब देखते है इसलिए प्राणी मात्र और खासकर मनुष्य की सेवा का महत्व मानते है । गांधी जी भी नर सेवा को ही नारायण की सेवा मानते है। किन्तु जैन धर्म न तो अद्वैतवादी है, न ईश्वर को घट-घटव्यापी मानता है, हां, आत्मा को परमात्मा जरूर मानता है, आत्मा में ही परमात्मा बनने की सत्ता छिपी है यह उसका अटल सिद्धान्त है किन्तु इस सिद्धान्त कारण भी यहा सेवा का उपदेश नहीं दिया गया है। मनुष्य के रूप में ईसर की सेवा करना या ईश्वर के रूप में ही ईश्वर की सेवा करना-आतिर ल दोनों का भी तो कोई लक्ष्य होना चाहिए, उद्देश्य होना चाहिए! इसलिए जहाँ तक मेरा अनुभव है जैन दर्शन की भावना को समझ पाया हुसेवा में पांच उस जैन धर्म में मुख्य है संचेतन प्राणी में एक जागृत आत्मा है, यह अनुभव करता है संवेदनशील है और सुख एवं साता उसे प्रिय है। जैसे पैसेही के नाव को ही सुप्रिय है। जो वास्तव में अपनी कोला ही का देवा के समाधि पहुंचाता है सावा एवं समाधि पहुंचाने का है-यह गान महावीर का फेंकन - समाहिकारएवं तमेवमाहपहुंचना संधि को प्राप्त होता है। वहीं निष्ठ भूमि है-सेवा माना की शांति मा से ! मे करने से दूसरी की भी शांति का अनुभव होगी। नके दूसरे को पाटी के स्वन से आयमा में भी ऑन एवं मैदा की अनुभव होना है ) की दूर अ ४४६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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