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________________ प्रतिसंलीनता तप निफेयमिच्छेज्ज विवेकजोगं समाहिफामे समणे तवस्ती। समाधि की कामना रखने वाला श्रमण तपस्वी ध्यान बादि साधना के लिए ऐसे निकेत-आवास की खोज करे जो कि सर्वथा विवेक योग्य हों। विवेक योग्य भावास का अर्थ काफी गहा है । टीकाकार आचार्यों ने बताया है, जहां स्त्री-पशु-नपुंसक आदि का वास न हो, जहां गृहस्थ की घर सम्बन्धी बातें, कोलाहल आदि सुनाई न दें तवा स्त्री-पुरुप के पिलन आदि की क्रियाएं जहां से दृष्टिगोचर नहों, तथा जिस स्थान पर रहने से किसी को ढेप, मप्रीति एवं अविश्वास न हो, तथा जो स्यान साधु के लिए न बनाया गया हो वह स्थान विवेकयोग्य माना जाता है। ऐसे स्थान को विविक्त शयनासन कहा गया है। विविक्त शयनासन की व्याख्या करते हुए शास्त्र में बताया गया है एगंतमणावाए इत्यो पसु वियज्जिए। सपणासणसेवणया विवित्त सयणासणं । --एकांत और अनापात-जहां अधिक लोगों का आना जाना न हों, स्त्रियों, पशुओं, तथा नपुंसक आदि से रहित हो, ऐसे स्वन्छ, मांत स्थान में शयन. आतन करना-- विक्षिप्त शयनासन है। विविक्त शयनासन को दो दृष्टियां विविक्त शयनासन के पीछे दो दृष्टियां मुख्य रूप से नही है- पहली मुख दृष्टि है ब्रह्मचर्य की साधना ! दूसरी दधि-साधक को गुरुगीनता ..से बचागार स्वावलम्बन, गटसहिता एव निभंग तमा निमंगर नाव को सोर अग्रवार माना। ग्रहाचर्य हो माधना में लिए ऐसे एक मानी नितांत आवमा रहती है, जहां गा यातायात सहो, जो निशिकार!
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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