SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिसंलीनता तप काय पर संयम करने से । शरीर एवं मन को अपने अनुशासन में रखने से तथा उन्हें सदा परम विशुद्ध भाव में जोड़े रखने से। काय प्रतिसंलीनता में शरीर के बाह्य संकोच पर ही अधिक बल दिया गया है, इसलिए कछुए का उदाहरण देकर बताया है-कछुआ जैसे अपने अंगों का गोपन करके, संकोच करके सदा निराबाघ रहता है, वैसे ही साधक विषय वासनाओं के बीच अपने शरीर का गोपन करके रहे ताकि उनके चंगुल में न फसे । जैसे कपड़ा खुला होने से शीघ्र ही पानी में पड़ने से भीग जाता है, किन्तु वही खूब कसकर गेंद जैसा बना दिया गया हो और फिर पानी में गिरे तो जल्दी से भीग नहीं सकता। इसी प्रकार काय प्रतिसंलीनता में रहा हुआ साधक आसानी से विषयों के वासना रूप पानी में नहीं भींग सकता। विविक्त शय्यासन प्रतिसंलीनता अनगार फोन ? प्रतिसंलीनता तप का चौथा भेद है--विविक्त शयनासन सेवना। इस तप का सम्बन्ध साधक के आवास-निवास से हैं। साधक संसार में रहता है, शरीर धारण करता है, शरीर के लिए बाहार पानी भी ग्रहण करता है, वस्त्र पात्र आदि भी रसता है, और रहने के लिए आश्रय-आवास आदि की भी गवेषणा करता है । चूकि जैन साधु का रूप अनगार का है। बनगार का अर्थ है-न विद्यते भगारं-गहं यस्य सः अनगार: जिसके पास अपना कोई पर (जगार) नहीं, वह बनगार है । मनगार के पास न अपना कोई पर, मठ, आप्रम व विहार होता है और न वह अपने लिये काहीं घर, मायम आदि बनवाता है । न किती आश्रम आदि के साय अपना सम्बन्ध जोड़ता है। हम तरह यह प्रत्येक दृष्टि से अनगार-गृह मुक्त होता है। माधम और प्रासाव भारतीय भूपिनों की परमरा में दिलः और श्रमण सपियों की हो परपरा नली मानी है । वैविध मावि नमागम बाग में निवास करने । प्रदेश प्रमुग पि भरमा यसलाम, विशाल मान योरा रसो,
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy