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________________ ३५८ जैन धर्म में तप माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व इसी प्रकार का एक प्रश्न केशीकुमार श्रमण में गणधर इन्द्रभूति गौतम से किया था अयं साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधाव । जंसि गोयम आरढो फहं तेण न होरसि ? हे गौतम ! यह घोड़ा बड़ा दुस्साहसिक और दुष्ट स्वभाव वाला है, तुम उस पर आरूढ--सवार हो, तो क्या तुम्हें बह घोड़ा कोई कष्ट नहीं देता ? गौतम ने उत्तर दिया मणो साहसिओ भीमो दुस्सो परिघावइ । तं सम्मं तु निगिहामि धम्म सिक्लाइ कंचगं !' मन का यह साहसिक-दुष्ट घोड़ा है, बड़ा ही जनल व रोज ! मैं धर्म शिक्षा रूप लगाम से उसे अपने वश में किये गता। इसलिए वह मुझे कोई परेशान नहीं करता, जिधर भी उसे दौड़ाना चाहता है यह धरती दौड़ता है ! घोड़ा अपने गन से नहीं, किन्तु बार के मन से नले,बा-गी में सवारी दक्षता है । वही सच्चा अपमानही है ! ___ गौतम स्वामी ने मन के गोड़े को मोड़ने गा, पश में गरमा मह तरीका बताया है .. घमं शिक्षा ! धर्म शिक्षा का अर्थ है--विवेक ! गपिनार, उच्चगंकल्प ! मन को सुबिधानों ने रोकने का नही एका तानीका - मद बिनार! - आचार्य हेमाद्र ने गन गोमन वनाने का मन बनाए : तो:पि यत्र गज प्रपाते नो ततस्ततो माम् ! अश्किीमति . याश्मिरतं गांतिमुपयाति ! मतो हलो पटनानियामागोषिषो मति पदबद । নিয়াস্তি দাগা গয়া গায়ন সংস্থ। -~नजिन में प्रो . या ri मा प्रान पाना नाशिक : मा
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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