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________________ प्रतिसंलीनता तप से मन और अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शांत हो जाता है। जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाए तो वह उस ओर ज्यादा तेजी से दौड़ना चाहता है, और उसे न रोका जाय, तो वह अपने इस विषय को प्राप्त कर सहज रूप में शांत हो जाता है । यही स्थिति मन की है । धारा बदल दो मन को विपयों से रोकने से अधिक विषयोन्मुख बनता है, और खाली छोड़ने पर भी विषयों का चिंतन करता है ! इसलिए उसे शुद्ध बनाने का यही एक उपाय है कि उसे शिथिल कर दिया जाय,अर्थात् उसे रोकने के बजाय उसका मार्ग बदल दिया जाय । नदी का प्रवाह रोकने पर बाढ़ का भयंकर रूप धारण कर अधिक विनाशकारी हो सकता है, यदि खेतों की ओर, तथा शुष्क भूमि की ओर उसका प्रवाह बदल दिया जाय तो वही विनाश निर्माण में बदल सकता है । अवारितं शान्तिमुपयाति से आचार्य का यह अभिप्राय नहीं है कि मन को विषय भोगों की खुली छूट दे दी जाय ! खूब भोग भोगे ! यदि ऐसी ही बात होती तो फिर स्वयं आचार्य क्यों मन का संयम करते ? क्यों साधना, भक्ति और ध्यान योग में प्रवृत्ति करते ? मन तो विषयों को भोग कर स्वयं ही शांत हो जाता ? किन्तु ऐसा मानना स्पष्ट ही मूर्खता होगी। मन को रोकना नहीं का अर्थ यह है कि मन की गति में आगे चट्टान मत लगाओ, किन्तु उस की धारा को बदल दो ! अधोगामी धारा को ऊर्ध्वगामी बना दो, अशुभ संकल्पों को शुभ संकल्लों में बदल दो ! जिस मन में मिट्टी. कंकर भरे हैं, उसमें हीरे-जवाहरात भर दो। __ मन की शुद्धि के लिए जैन धर्म में अनेक प्रकार की साधनाएं बताई गई हैं। ध्यान व एकाग्रता की साधना से पहले अनित्य, अगरण आदि बारह भावनाएं बताई है, मैत्री, प्रमोद, करणा, व माध्यस्य भाव की साधना बताई गई है, यह भावना तो शुद्ध व उदात्त बनाने की ही प्रकिया है। इन भावनाओं में संसार के विषयों के प्रति वैराग्य मग तिन होता है, दूसरों को गुण, पतंव्य पालन आदि पर प्रसन्नता अनुभव की जाती है-इन प्रकार मन में गुम बिनानों का उपय होता है, अशुभ विचार दब जाने हैं।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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