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________________ २७० जैन धर्म में ता -~-उसी में प्रसन्न रहे। ऐसा नहीं कि स्वादिष्ट सरस आहार तो चुन-चुन कर चुपचाप खाले और नीरस रूसा सूखा भोजन फेंक दे, या अन्य किसी .. को दे दें । शास्त्र में विधान किया गया है कि जैसा आहार भिक्षा में प्राप्त हुआ, वह लेकर सर्व प्रथम गुरु के पास आये, गुरु को दिखाकर उनसे प्रार्थना करें---"गुरुदेव ! मेरे इस भोजन में से आप कुछ भोजन ग्रहण कर के कृतार्थ कीजिए।" यदि गुरु लेना चाहें तो सम्मान पूर्वक देवें, वे न लें तो फिर अपने अन्य साथियों को निमंत्रित करें-"जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साहू हुज्जामि तारिओ"१. यदि कोई महानुभाव मुझ पर अनुग्रह करें, कृपा करें तो मेरे । भोजन में से ग्रहण कर मुझको कृतार्थ करें।" उसके बाद यदि कोई उसका निमंत्रण स्वीकार करें तो उनके साथ भोजन करें अन्यथा अकेला ही शांत एवं प्रशांत मन से जैसा भी सरस नीरस भोजन हो स्वादरहित होकर ऐसे साये-जैसे बिल में सांप घुस रहा हो, अर्थात् उस भोजन में स्वाद न से रस में आसक्त न हो, किन्तु अस्वादवृत्ति के साथ साये ।२ साधक को आहार का निषेध नहीं है, विगय का भी सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु स्वाद कर नर्वथा निषेध है । स्वाद वृत्ति का निषेध करते हुए आचारांग मूग में यहाँ तक बताया है कि-"साधु आहार करते समय यदि उस आहार में स्वाद लेने की भावना आ जाये तो उस ग्रास को बाई दाढ़ से दाहिनी दाइ गो ओर भी नहीं ले जाना चाहिए।" स्वाद के लिए आहार यो नाना और चबाना भी दोष है। अतः स्वाद भावना से रहित होकर थाहार करें कि -- "अणासापमाणे तापयियं आगममाणे तवे में अभिसमन्नागए भवः''-- स्वाद न लेने से गमो का हलापन होता है, ऐसा सापक बाहार मस्तारा. भीमा करता है।" इसीलिए कहा जाता है कि माधु आहार करताना मात-आद कामों के बंधन गीत भी गार गाता है, और उन्हें दर-यशन बांग १ कामानि १६६४ २ हिलमिल पन्नगा या आहारमाहारे अगरती मत ?
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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