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________________ जैन धर्म में तम १८२ तप नहीं है ? जबकि मान्यता यह है कि प्रथम तीर्थकर भगवान पदेव ।। में स्वयं एक वर्ष का कठोर तप किया। उनके शासन में भी एक वर्ष का उत्कृष्ट नप माना गया है, मध्य के वाईन तीर्थफरों के शासन में अप्टमास .... का उत्कृष्ट तप है । तो उनका तप किस तप की गणना में आयेगा। . . इस विषय में समाधान यह है कि इत्वरिक तप का यह वर्णन भगवान । महावीर (वरम तीर्थकर) के शासन काल की अपेक्षा से ही किया गया है। चरम तीवंफर के शासन काल में इत्वरिक तप उत्कृष्ट छह मास का ही होता है, जो स्वयं भगवान महावीर ने भी किया है। इस काल मर्यादा का.. कारण है उस समय का शरीर बल ! अस्तु, इमी हेतु से वर्तमान काल की दृष्टि से एक दिन के उपवास से लेकर छह मास पर्वत का उपवास त्वरिना तप की सीमा में आता है । इत्वरिक तप में अनेक प्रकार की तपस्याएं आ जाती हैं। आगग में जितने प्रकार के तप 'गुणरत्न संवत्सर, महासिंह नितीदित तप, तथा सर्वतो भद्र प्रतिमा आदि जितने भेद बताये गये हैं वे सब इत्वरिकतप के अन्तर्गत आ जाते हैं । उग सब भेदों का समावेश करते हुए संक्षेप में इन तप के छह भेद बताये गये हैं जो सो इत्तरिमो तयो सो समारोण छव्यिहो। सेडितयो पयरतयो घणो य तह होइ वगो य । तत्तो य वग्ग यगो पंचम घट्टओ पइराण तयो । - मण इच्चिपचित्तत्यो नायव्यो होइ इत्तरिमो॥ मन:निछन न प्रमान करने वाला त्यरिक नाम गंक्षेप में घर प्रकार पोला २ प्रायन सन पर मामानमानि हो। मा पनिशमन , मान मणि सलोन। ." , रा
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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