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________________ १८१ अनशन तप अनशन तप को दो भेद है१ इत्यरिफ-कुछ निश्चित काल के लिए २ पायत्कत्यिक - जीवन पर्यत के लिए, यावत्यधिक तप को मरणकालिक (मृत्युपर्यत) भी कहा जाता है। इत्वरिक तप में समय की मर्यादा रहती है, निश्चित समय के पश्नात् भोजन की आयक्षा रहती है, इसलिए इस तप भी को सावमांक्ष तप कहा है, गायत्कापिका में जीवन पर्यन्त आहार का त्याग कर दिया जाता है, उसमें भोजन की कोई आकांक्षा शेष नही रहती, जीवन के प्रति गोई आकांक्षा नहीं रहती इस कारण उसे निरचनाक्ष तप भी कहा गया है। पत्वरिफ तप के छह भेय दोपही ग माह त्याग से लेकर छह गात तक उपवारा गो इत्परिक तप माना जाता है, जितु यहां दो प्रश्न उपस्थित होते है। पहला यह है कि मूल आगग में प्रत्यरिग तप गो गणना पठाय भतं नापं भक्त अर्थात एक बहोराप्ति के उपवास में प्रारंभ की गयी है। फिर चतुर्थ भक्त से कम समय के उपनाम को अनगन तप पयों माना जा ? साना बारमाराम जोमा ने अपनी आत्मज्ञानप्रकागिता हिन्दी टीका में योगी ने आहारमाग को भी अनपान तप माना है। यह मानामा परम्परा में प्रचलित है. गोटि प्रको सपने में नारी, पोरकी वादि को भी तय माना है, समता उनी आधार पर दोपही याहारमान मो जगगन में गिना गया। गि मूल राम में जहां अनशन तर म ग .. i नामने माग गं माना गोमामलाप माना गोमाग माल मागगरः जलोदवीरो मनमा में लिया गया। सागनिगा। समती बात यह कि दारिश का अहट का नाम काकी को माना नमाजमार मिशार का सारा सारिका
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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