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________________ १७१ अनशन तप कुछ दिनों बाद सेठ बन्दीगृह से छूटकर घर आया । सेठानी ने उसका स्वागत-सत्कार भी नहीं किया । सेठ ने उसे परिस्थिति की विवशता समझाई कि यदि मैं उसे कुछ भोजन नहीं देता तो मेरा इतने दिन जी पाना भी कठिन हो जाता। नहीं चाहते हुए भी सिर्फ परिस्थिति से निवटने के लिए ही मैंने विजय को भोजन दिया था। सेठ के समलाने से सेठानी का रोष कम हो गया। इस कथानका का भाव बताते हुए कहा गया है सिवसाहणेसु बाहार विरहियो जं न पट्टए देहो। तम्हा घणोन्य विजयं साहू तं तेण पोसेज्जा ।' मोक्ष के साधना पथ में यह शरीर भोजन के विना बन नही सकता, यद्यपि शरीर विजय चोर की तरह आत्मगुणरूपी पुनों का हत्यारा है, फिर भी समय पड़ने पर जैसे गधे को भी बाप बनाना पड़ता है, वैसे ही तप आदि करने के लिए इस शरीर का भी पोषण करना पड़ता है। किन्तु साधक शरीर से किसी प्रकार का मोह वा ममत्व न रखकर सिर्फ अपनी जीवन साधना में सहायक होने के नाते ही इसका पोषण करें। जब देगे कि अब गरीर से कोई मतलब नहीं रहा है तब आहार का त्याग कर मनमन स्वीकार कर ले और शरीर के बन्धन से छूट जाय । भोजन के उद्देशय को स्पष्ट करते हुए जैन आगमों में रमान-पान पर इस बात पर बल दिया गया है कि भोजन का नाम नही, नवीर का पोषण भी नहीं, किन्तु शरीर को पनं नहायाः यमाय नसाना बनाना गया है-जैसे गाड़ी चलाने के लिा पहियों ने अंगर (निमा संल मादि) लगाया जाता है, गाय को बीच पारने के लिए उस पर मामलमार जाता, उसी प्रकार मारो मंगा यात्रा निभाने का मनभा शीशम सानो लिए नया प्राण को पार निमोनमार पारि .
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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