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________________ thee जैन धर्म में तप १५.८ भूस ही सबसे बड़ा रोग है । पेट जब तक खाली रहता है, कोई काम सुझता नहीं | जैसे तेल के बिना दीपक टिमटिमाने लगता है, पानी के बिना मछली तड़फड़ाने लगती है, भोजन के बिना मनुष्य भी इसी प्रकार आकुल व्याकुल हो उठता है, भूख से व्याकुल होकर ही किसी ने कहा थाबुभुक्षितः फि न करोति पापं - भूखा क्या पाप नहीं कर लेता । सन् १९४५ में जब बंगाल में भयंकर दुष्काल पढ़ा था तब भूख से व्याकुल हुई एक माता अपने बच्चे को भी पकाकर खा गई थी । मनुस्मृति में एक स्थान पर बताया है- "अजीगतं नाम के ऋषि ने भूख से व्याकुल होकर अपने प्यारे पुत्र शुनःशेप को यज्ञ में होम देने के लिए बेच डाला था ।"" विश्वामित्र जैसे ऋषि भी क्षुधा पीड़ित होकर चंडाल के हाथ से लेकर कुत्ते की जांघ का मांस खाने को तैयार हो गए ।" इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट होती है कि भूसा क्या नहीं करता ? संस्कृत के एक कवि ने कहा है - अस्य वग्धोदरस्यायें कि न कुर्वन्ति मानवाः । वानरोमिव वाग्देवीं नर्तयन्ति गृहे गृहे । इस पापी पेट को भरने के लिए मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर लेता ? सरस्वती जैसी पवित्र वाग्देवी को भी वानरी की तरह घर-घर में हर किसी के सामने नचाने लगता है । कवि ने कहा है दाता, कयन फला वोह क्रूर, फिता मुख होय कवीश्वर, सुत दासो नो सोय, न्याय सुध होय नरेश्वर । कायर ने सूरा कहे कहे सम में न घण से नार कहे आ जाचवा काज जिन-जिन विधे हुलस हाय हे घरे । दुभर पेट भरवा भगो करम एह मानव करें । तिमी माता | १ मनुस्मृति १०।१०५ २ मनुस्मृति १०१४८ "
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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