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________________ १३६ जैन धर्म में तप मास का माना है, मध्य के वाईस तीर्थकरों के समय में आठ मास का और भगवान महावीर के समय में छह मास का !' इसका क्या कारण है ? क्या भगवान महावीर में छह मास से अधिक तप करने की क्षमता नहीं थी ? ये तो अनन्तवली थे। और फिर भगवान ऋपभदेव और भगवान महावीर की आत्मशक्ति में कोई अन्तर नहीं था। तब क्यों यह अन्तर दिखाया गया कि एक तीर्थकर के समय में बारह मास का तप (उत्कृप्ट) विहित है तो दूसरे तीर्मकार के समय में छह मास का ! भगवान महावीर स्वयं भी इस सीमा की भागे क्यों नहीं बढ़े ? . इसका कारण और कुछ नहीं, किंतु यही था कि उस काल की शरीर .. स्थिति में अन्तर आ गया था। अपभदेव युग के साधक के लिए एक वर्ष का तप सहज था, वह अतिभार नहीं था, जबकि भगवान महावीर के युग . के साधकों के लिए छह मास तक का तप ही शरीर-स्थिति के अनुकूल समझा गया । उससे अधिक लम्बा तप करने पर शरीर पर अतिभार पड़ता . और उससे इन्द्रिय शक्ति अधिक क्षीण होकर संमयाराधना में भी कठिनाई ... आने लगती, इसी कारण यह एक तप की सीमा बताई गई है। यदि किसी . साधक को दो चार दिन का उपवास करने पर भी अधिक संक्लेश होता हो... तो शास्त्र में कहा है- वह उपवास न करके तप के अन्य मार्ग की बाराधना . . करें। क्योंकि तन की तपस्या उपवास है और मन की तपस्या समाधि है, यदि समाधि भंग होती हो तो फिर तप-समाधि नहीं हो सकती; अतः वह तप का मार्ग बदल दें, ध्यान, स्वाध्याय, विनय सेवा आदि के मार्ग पर बड़े किन्तु मन को क्षुब्ध न बनाएं। सीलिए प्राचीन नाचार्यों ने अनशन आदि तप की श्रेष्ठता का मापर यंत्र भी यही बताया है कि जिस तप के साथ ताप (उत्ताप-संश्लेग) का अनुभव न हो, तप करते समय यदि मन में ताप होता है, संताप परिताप बढ़ता है तो उससे तो अच्छा है कि तप न किया जाय | बानाय वमोविजय । जी ने अपने तपोप्टमा ग्रन्थ में कहा है. - १ व्यवहार नाय उ०१
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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