SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नप का वर्गीकरण १३७ तदेव हि तपः फायं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियणि च । वही तप करना चाहिए जिससे कि मन में दुर्ध्यान न हों योगों की हानि न हों ओर इन्द्रियां क्षीण न हों । एक प्राचीन आचार्य का कथन है सो नाम अणसण तवो जेण मणोमंगुलं न चिते । जेण न इं दियहाणी जेण य जोगा न हायंति । वही अनशन आदि तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्यप्रति की योग - धार्मिक क्रियाओं में विघ्न न आये । तो यह तपः विवेक ही जैन धर्म की तपमर्यादा है । तप का संतुलित दृष्टिकोण है । इस दृष्टि का विवेक रखकर ही साधक अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार कभी बाह्य तप का आचरण करता है और कभी आभ्यन्तर तप का । वैसे यह भी माना गया है कि बाह्य तप की दृष्टि आभ्यन्तर तप की ओर रहनी चाहिए । वाह्य तप के छह द शास्त्र में तप के दो भेदं करके प्रत्येक तप के छह-छह भेद बताये गये है । वाह्य तप के छह भेद है और उसके अन्तर्भेद भी अनेक है । अन्तमंदों का वर्णन पढ़ने से लगता है यह तप सिर्फ वाह्य तप ही नहीं, आभ्यन्तर तप तक भी पहुंच गया है। उसके छह भेद ये हैं अणसणमूणोर्यारया भिक्खायरिया य रस परिच्चाओ । काफिले सो संतीणया य, वज्लो तवो होई ।' (१) अनशन - आहार त्याग (२) कनोदरी आहार बादि की कमी । (३) भिक्षाचरी - अभिग्रह आदि के साथ विधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण करना । १ उत्तराष्ययन ३०१८
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy