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________________ बान-युक्त तप का फल १२१ जाता है । इसी तरह मुक्ति के लक्ष्य से शून्य तप को भी 'वाल तप' कहा जाता है । जैन सूत्रों में प्रायः 'अज्ञान' के अर्थ में 'वाल' शब्द का प्रयोग हुआ है। सूत्रकृतांग में स्थान-स्थान पर 'वाल' शब्द का अज्ञानी और मूर्ख के अर्थ में प्रयोग किया गया है-जैसे णातीणं सरति बाले' वाले पाहि मिज्जती वालजणो पगभई स्थानांग ४ में भी तीन प्रकार के मरण बताये हैं-बालमरण, पंडितमरण, वाल-मंडित मरण । यहां भी 'वाल' शब्द 'अज्ञानी' का ही द्योतक है। भगवती सूत्र में ६० हजार वर्ष तक कठोर तप करने वाले तामली तापस के लिए भी 'बालतवस्सी' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। क्योंकि वह भी सम्यक् ज्ञान के बिना ही तप कर रहा था । उत्तराध्ययन सूत्र में भी नमिराज ने ऐसे अज्ञान तपस्वियों को वाला' कह कर पुकारा है । इन सब प्रकरणों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्ज्ञान के बिना जो तप किया जाता है, वह चाहे कितना ही कठोर और दुर्घर्ष हो, वह 'वाल तप' है, फल की दृष्टि से वह प्रायः 'खोदा पहाड़ निकाली चुहिया' के जैसा ही कार्य है। बाल-तापसों के विभिन्न रूप भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के समय में इस प्रकार के चाल तप का बोलबाला था। भगवान पाश्वनाथ जब गृहस्थ जीवन में थे। तव इस प्रकार के विवेक हीन बाल तपस्वियों का जनता पर अत्यधिक प्रभाव था। कमठ तापस जो वाराणसी के बाहर ही कठोर बालतप कर १ सूम कृतांग १।३।११६ २ सूत्र० १।२।२।२१ ३ सूत्र० १३१३१२४ ४ स्थानांग सूय स्थान ३ । ५ भगवती सूप शतक ३ । उद्देशक १ ६ उत्तराध्ययन सूत्र ६४४ ।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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