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________________ ११६ न-युक्त तप का फल चज्ञान जिसे होता है, वही आत्मा का दर्शन कर सकता है । आत्मा का दर्शन करने वाला तपः साधना के द्वारा आत्मा के विभावों को, जड़ आवरणों व बंधनों को तोड़कर सर्वथा मुक्त हो जाता है । आचारांग सूत्र में कहा है एगमप्पाणं संपेहाए धुणे फम्म सरीरगं ।' आत्मा को शरीर से पृथक् समझकर कर्म शरीर को धुन डालो ! कर्मों को धुन दिया तो आत्मा अपने स्वरूप में स्वतः प्रकट हो जायेगा । शरीर और आत्मा का यह भेद समझ पाना ही आत्म-विज्ञान है, आत्म-विज्ञानी में अपने साध्य का विवेक होता है । वह साधना करता है तो किसी भौतिक अभिलापा से नहीं, अथवा अंघों के जैसे भी नहीं कि “चलते चलो, कहीं न कहीं तो पहुंचेगे ही ! साधना करते जाओ ! शरीर को कष्ट देते जाओ कुछ न कुछ फल तो मिलेगा ही !" आत्मद्रष्टा साधक इतने अंधेरे में नहीं चलता । वह अपने मार्ग को स्पष्ट देखकर ही आगे बढ़ता है। उसके सामने लक्ष्य स्थिर रहता है, दिशा स्पष्ट रहती है कि 'मुझे तो अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाना है, कर्म शरीर को, अर्थात् कर्मों के आवरणों को नष्ट कर परम शुद्ध दशा को प्राप्त करना है।" . साधना के क्षेत्र में उक्त दोनों प्रकार के साधक आते हैं । जो साधक आत्म-ज्ञान के अभाव में, मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य से रहित साधना करते हैं, उनका तप 'अज्ञान तप' कहलाता है। वे तप तो करते हैं, देह को भयंकर कप्ट भी देते हैं, किन्तु उस देह कष्ट में अहिंसा, करुणा, अनासक्ति और बारमदर्शन का विवेक नहीं रहता। उदाहरण स्वरूप से एक साधक 'पंचाग्नि तप' कर रहा है, उसके चारों ओर अग्नि की ज्वालाएं धधक रही हैं, ऊपर सूर्य की प्रचंड किरणें आग बरसा रही है, इस साधना में देह को कप्ट तो अवश्य होता है, किन्तु साथ में अग्नि की ज्वालाओं से अनेक जीवों की हिंसा भी होती रहती है। कभी-कभी उन ज्यालाओं में बड़े बड़े जीय भी भस्म हो जाते हैं। जैसे भगवान पाश्यनाथ ने कम तापस की धूनी में १ आचारांग ४१३
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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