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________________ तप और लब्धियां वह पूर्वधर लब्धि कहलाती है। वर्तमान परम्परा में चौदह पूर्व के अंतिम ज्ञाता श्रीभद्रवाहु स्वामी हुए । यद्यपि आचार्य स्थूलिभद्र ने दश पूर्व का अर्थ सहित ज्ञान प्राप्त कर लिया था, और ग्यारहवें पूर्व का अनुशीलन (वाचना) चल रहा था, किंतु उसी समय उन्होंने अपनी बहनों को चमत्कार दिखाने के लिये लब्धि फोड़कर सिंह का रूप बना लिया ।' स्थूलिभद्र का यह कृत्य देखकर भद्रवाहु स्वामी ने सोचा-'इसे विद्या हजम नहीं हो रही है, अतः अपात्र समझकर आगे वाचना देना वद कर दिया। संघ ने आचार्य से वहुत अनुनय-विनय किया-कि यदि आप ज्ञान नहीं देंगे तो चार पूर्व का ज्ञान लुप्त हो जायेगा । आचार्य ने कहा-"अपात्र को विद्या देने से तो विद्या साथ में लेकर मर जाना ठीक है ।" किंतु फिर भी श्रीसंघ के अत्यधिक आग्रह और स्थूलिभद्र के विनय के कारण भद्रवाहु ने अंतिम चार पूर्व का ज्ञान तो दिया, पर केवल शब्दरूप में ही, अर्थरूप में ही नहीं। इसलिए अंतिम चतुदर्शपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ही कहलाते हैं । पूर्वो का ज्ञान इतना विशाल है कि वह केवलज्ञान का एक नमूना पेश कर सकता है, इस कारण चतुदर्शपूर्वधर को 'श्रुतकेवली' भी कहते हैं । (१५) अहल्लब्धि-अरिहंत तीर्थकर को कहते हैं । साधारणतः अरिहंत शब्द का अर्थ होता है-कर्म रूप शत्रु ओं का नाश करने वाले । किंतु इस व्याख्या से तो प्रत्येक केवली अरिहंत कहला सकते हैं। इसलिए आचार्यों ने कहा है जिस केवलज्ञानी को अहल्लब्धि की प्राप्ति हो, वही सिर्फ अर्हत् कहलाता है, हर एक केवलज्ञानी नहीं। अहल्लब्धि की प्राप्ति होने पर अनेक विशिष्ट अतिशय भी प्रगट होते हैं जिनमें अप्ट महाप्रा तिहार्य मुख्य हैं । १ आवश्यक वृत्ति. पृ० ६६८ २ अशोक वृक्ष, देवकृत अचित्त पुष्प वृष्टि, दिव्य ध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, देव दुन्दुभि और छत्र-ये आठ महाप्रातिहार्य हैं। अर्हत् जब माता के गर्भ में आते हैं तो माता चौदह महास्वप्न देखती है। चौदह महास्वप्न का चित्र परिशिष्ट में देखें।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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