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________________ ७५ तप और लब्धियाँ कहीं शंख बज रहा है. जो बारह योजन में खड़ी है । उसमें एक ही समय कहीं ढोल, कहीं भेरी, कहीं घंटा, कहीं बाजे, कहीं वीणा आदि विभिन्न ध्वनियां एक साथ गूंज रही है, और एक विचित्र कोलाहल सा हो रहा है, लब्धिधारी उन समस्त वाद्य विशेषों के शब्दों को पृथक्-पृथक् रूप से सुनता है । प्रत्येक वाद्य की ध्वनि को अलग-अलग पहचानता है । इतनी सूक्ष्म और दूरस्थ विषय को ग्रहण करने की शक्ति संभिन्नश्रोतोलव्धि कहलाती है । (७) अवधि लब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से अवधि ज्ञान की होती प्राप्ति है । ( ८- ६ ) ऋजुमति विपुलमति लब्धि - मनः पर्यव ज्ञान के दो भेद हैंऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञान का धारक लढाई द्वीप में कुछ कम (अढाई अंगुल कम ) क्षेत्र में हे हुए संज्ञी, अर्थात् समनस्क प्राणियों के मनोभावों को जानता है । प्राणी मन में जो भी सोचता है, संकल्प करता है उसका सामान्य रूप से ज्ञान करना ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञान है । और संपूर्ण अढाई द्वीप में रहे हुए सज्ञी प्राणियों के मनोभावों को स्पष्ट रूप से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचारों को भी जान लेना विपुलमति मनः पर्यव ज्ञान है । यह मनोज्ञान जिस लब्धि के कारण प्राप्त होता है, उस लब्धि को ऋजुम तिलब्धि तथा विपुलमतिलब्धि कहा जाता है । (१०) चारणलब्धि - जिस लब्धि के कारण आकाश में जाने आने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, उसे चारणलब्धि कहा जाता है । चारण शब्द एक प्रकार का रूढ शब्द है, जिसका आकाशगामिनी शक्ति के रूप में जैन ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर प्रयोग हुआ है । भगवती सूत्र में चारणलब्धि के दो भेद बताये गये हैं । जंधाचारण और विद्याचरण | जंघाचारण लब्धि का धारक पद्मासन लगाकर जंघा पर हाथ लगाता है और तीव्रगति से आकाश में उड़ जाता है । टीकाकार लभयदेव सूरि ने वताया है कि जंघाचारणवाला मुनि आकाश में उड़ान १ शतक २० उद्देशक
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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