SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ जैन धर्म में तप (६) संभिन्नश्रोता-इस लब्धि की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। एक अर्थ है-इस लब्धि के प्रभाव से साधक शरीर के किसी भी भाग से शब्दों को सुन सकता है ।' साधारणतया कान से ही सुना जाता है, किंतु लब्धि प्रभाव से नाक से भी सुन सकते हैं जीभ से भी, आँख से भी । अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय श्रोत्र-कान का कार्य कर सकती है। एक दूसरा अर्थ किया गया है कि साधारणतः एक इन्द्रिय एक ही कार्य कर सकती है । आँख देख सकती है. जीभ सूघती है, न आँख जीभ का काम कर सकती है, और न जीभ आँख का। किंतु तपस्या के प्रभाव से साधक को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का काम कर सकता है । आंख मूंदकर बैठा है, आपके शब्द सुन रहा है तो शब्दों के साथ ही आपके हाव-भाव का ज्ञान भी उसे हो रहा है, आपका पूरा रूप उसके कानों से प्रतिविम्वित हो जाता है, इसी प्रकार जीभ से एक वस्तु को छूने पर उसका रूप रंग स्पर्श गंध आदि सब का ज्ञान कर लिया जाता है । यह इन्द्रियों की अद्भुत विकसित शक्ति है । प्रकारान्तर से एक अर्थ यह भी किया जाता है कि संभिन्नयोतो लब्धि के धारक योगी की श्रोत्रइन्द्रिय शक्ति बहुत ही प्रचंड हो जाती है । सूक्ष्म से सूक्ष्म ध्वनि को वह अलग-अलग करके ग्रहण कर लेता है । जंगल के वातावरण में जैसे एक साथ सैकड़ों पक्षियों की आवाजें आती हैं, कहीं चिड़िया चहक रही है, कौआ कांव-कांव कर रहा है, कोयल गा रही है, और छोटे-मोटे झींगुर आदि अगणित जीव अलग-अलग शब्द कर रहे हैं । साधारण मनुष्य के लिए वह कोई स्पष्ट शब्द नहीं, केवल एक कोलाहल माम होता है, किसी की भी ध्वनि व अर्थ उसकी समझ में नहीं आ सकता। किंतु भिन्नथोतोल ब्धि का धारक दूर खड़ा ही उन तमाम शब्दों को, ध्वनियों को सुनकर सबको अलग-अलग पहचान सकता है, कौन किस की ध्वनि है ! उदाहरण देकर बताया गया है कि -चक्रवर्ती की विशाल सेना । १ नर्वतः सर्वैरपि शरीर देगः श्रृणोति स संभिन्नश्रोता: -आवश्यक चूणि अ०१
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy